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वे जो संस्कृति सचिव के पाजामे में घुस जाना चाहते हैं / प्रकाश मनु

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संस्कृत सचिव का पाजामा मुलायम है
नफीस और ताजा धुला
और ताजे धुले होने की महीन सास्कृतिक महक उसमें से
छन-छनकर आ रही है- आ रही होती है जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त
उनकी मित्र नर्तकियों
के ताजा नृत्य कंपोजीशन किंवा श्रमश्लथ सांस्कृतिक अभ्यास से
जो खासकर संस्कृति सचिव के निजी एकांत में
परोसे जाते हैं स्वादिष्ट डिश की तरह।

और वे कैसे परोसे जाते हैं किस विध, किस लयात्मक सुर-ताल, कलात्मक
चतुराई से- इसेे तो फिलहाल रहने ही दें
और यह हमारी माथापच्ची का विषय भी नहीं
बहरहाल इतना तो इससे साबित हुआ ही
कि संस्कृति सचिव का ओहदा जिस कदर बड़ा है, उसी अनुपात में उनका
पाजामा नफीस है

मुलायम और ताजा धुला-और उसमें से सुवास...!

अब वे लोग जो संस्कृति सचिव के ताजे धुले
नफीस अैर महकदार जाजामें में घुसना-बल्कि घुस ही
जाना चाहते हैं किसी भी कीमत पर किसी भी रस्ते
उनका महान सार्वजनिक अैर निजी दुख तो यही हो सकता है
कि पाजामा जितना साफ धुला, नफीस और मुलायम है
उनते धुले, नफीस और मुलायम वे नहीं है
फिर भी वह उनकी वरेण्य साहित्यिक महत्वाकांक्षा ही कही जाएगी
कि वे उसमें किसी न किसी विध घुसना
और घुसकर जरा ठीक-ठाक सी सम्मानपूर्ण जगह पा लेना चाहते हैं।

लिहाजा दिल्ली में आजकल बड़ी हलचल है
दिल्ली में हचचलों जैसे हलचल है...
दिल्ली दिलकश हलचलों में डूब-इतरा रही है ...
गो कि दिल्ली में अहाजकल संस्कृति सचिव और
उनका पाजामा ही खास है
जिस पर पक्ष-विपक्ष सभी का खास ध्यान है।

अक्सर किसी सभा में संस्कृति सचिव के आने से पहले ही सभा-कक्ष
के बाहर लम्बी-लम्बी लाइनें लग जाती हैं
उन उत्सुक उत्तेजित हड़बड़ाए लोगों की
लोग जो मौका मिकलते ही फौरन से पेश्तर
संस्कृति सचिव के पाजामें में घुस जाना चाहते हैं

आप देखेंगे कि उनके चेहरों पर बड़ी गहरी आध्यात्मिक पीड़ा है
अपने होने और कुछ न हो सकने की गहन दार्शनिक दुख
वे घरों से बड़ी सुरूचिपूर्ण मुद्राएं पहनकर आए हैं
सोचकर कुछ हल्के-फुल्के कटावदार वाक्य जो संस्कृति सचिव के सम्मान में
कहे जाएंगे । यहां तक कि हवा में या शीशे के आगे बोल-बोलकर
घंटों तक
उन्होंने खुद ही खुद को सधाया है!
 
आप उन पर एक नजर डालते ही समझ जाएंगे
कि रात उनकी ठीक से नहीं बीती
वे बीवी बच्चों, मित्रों और प्रेमी-प्रेमिकाओं से झगड़कर आए हैं
इस सास्कृतिक पाजामे में अपनी हैसियत और कद
के मुताबिक जरा ठीक-ठाक सी जगह पाने के लिए

(2)

अब इन क्यू लगाए, पाजामे में घुसने के समुत्सुक
तमाम-तमाम भद्र लोगों की भीड़ में
कुछ चेहरे जो दूर से नजर आ रहे हैं- कहिए तो पाठकवृंद
उनसे आपको परचा दूंः
इनमें से एक को तो आप भी जानते हैं
एक दंतहीन खोखियाता हुआ गंजा जिसने जिंदगी पूरी लुढ़कने
लोटे की तरह इधर से उधर
लोटने में लगा दी और अब
क्या बुरा है कि जो चिर विश्रांति पाना चाहता है कृपालु संस्कृति सचिव
के ममतालु पाजामे में!
फिर एक तोंदियल काला-नाटा भालूनुमा है जो एक फायदे वाली सरकारी
पद पाने से पहले

‘झोलाछाप’ समाजवादी हुआ करता था
एक मक्खीछाप मूंछ वाला नवयुवक है जो
संस्कृति सचिव के व्याख्यानों के जरिए
देव संस्कृति के नए बीजमंत्र सीख रहा है
कि निर्लज्ज बनो-और निर्लज्ज बना और सिर्फ जो जीते, उसका साथ दो।
यानी उम्र भर सत्ता के होंठो में जीभ फिराने के बाद
जब लोहिया से मिलो लोहिया हो जाआ,
लालू से मिलो तो झट ‘ललुआ’ बन जाआ ।

इसके अलावा बाकी जो भीड़ है
उसमें शामिल मूर्ख बुद्धिमानों और बुद्धिमान मूर्खो की तो खैर गिनती
ही क्या की जाए।

उन्हीं में एक अधेड़ अमरीका रिटर्न
और एक बड़ी कुर्सी पर बैठा हुआ एक अति सींकिया भी है
जो आजकल कुर्सी के हिसाब से फैसले की कोशिश में
ऐंठता हुआ खासा मजेदान लगता है ...!

बहरहाल ये है और कुछ फूली-फूली मोटी मांसल औरतें
कुछ सुती हुई एकदम यंग बालाएं भी
जो हर दूसरे मिनट बालों को पीछे झटका देकर
अपनी आधुनिकता को पुख्ता किया करती हैं!

यों आप समझिए कि संस्कृति सचिव के इर्दगिर्द पूरा एक उŸार-आधुनिक समाज है
उस खास उत्तर-आधुनिक समेत जो आजकल
अपने लेखों और व्याख्यानों में
किताब की जगह जूता रखकर ठीक रघुवीर सहाय के ‘मुसद्दीलाल’ की
तरह खुश होता है ।
और जो भीड़ में भीड़ है और नहीं भी
से पसीना बहाते दुर्दांत
आपस में मुस्क्या कर बतकही करते
आंखों-आंखों में एक-दूसरे को नापते
अंदाजा लगाते हैं कि पाजामे में सबसे अच्छी
शीतल और शांतिप्रदायक जगह कौन सी है
और परदा ‘झप्प से उठाने या गिराने का
सबसे अच्छा समय कौन सा हुआ करता हैं !

कि इतने में सांस्कृतिक हस्तक्षेप का सबको एक साथ राष्ट्रीय सुअवसर
तब मिलता है

जब संस्कृति सचिव के कविता पाठ के फौरन बाद
की नाटकीय चुप्पी में
उनकी शरारती आंखें लपक-झपक कर रही होती हैं

फिर फिर मचता है शोर कि
मि. संस्कृति सचिव अलाय बलाय जी
फिर से अपनी वही कविता सुनाइए- वही-
जो आपने अपनी प्रिय सखी कृष्णाभिसारिका की विरह-शोकांतिका
के रूप में रची थी
उसमें स्त्री, जो चली गई संस्कृति सचिव को करके अकेला और उदास-
की गोल, सुडौल महकती हुई कदली जंघाओं का जिक्र है...
और दुधिया कंचुकी का, जिसकी उपमा कालिदास
से पूछकर वह कभी लिखेंगे।

दुख है- बहुत दुख हैं संस्कृति सचिव को
कि आजकल जिसे देखो धूमिल के ‘जीभ और जांघ के चालू भूगोल’ की तर्ज पर
उनकी ओर देखकर हंसता है
हंसकर आंख मारता है घोर अश्लीलता से...
वह कसमसाते हैं, मगर फिर भी सुनाते हैं
दुख है...दुख बहुत है संस्कृति सचिव को
कि जब भी वह गुनगुनाते हैं कविताएं इन दिनों
कदली जंघाएं अक्सर तराशदार नर्तकियों की
आगे बढ़कर होंठो पर अर्गला लगा देती हैं!

तो कदली जंघाओं को भला अब कब तक
और क्यों कदली जंघाएं न लिखें-और न लिखें
तो बताइए क्या लिखें ? समझ नहीं पाते संस्कृति सचिव अक्सर
और एकांत में सिर खुजाने के साथ अपने दुश्मनों और आलोचकों
को गालियां देते हैं बेहिसाब
-पागल हो गए हैं साले सबे सब्ब...
साले धुर गंवार !

(3)

जब तक कविता हो पूरी-या उस खुली- अधखुली
कंचुकी के लिए कोई अछूती उपमा संस्कृति सचिव सोच पाएं
होते-होते पाजामे के नीम अंधेरे में घुस आए राजधानी के कवि, लेखक
कलाकार, वकील, प्राध्यापक, संपादक तमाम
और पूरी की पूरी साहित्य अकादमी
अपनी सनातन बहसों, किताबों, रजिस्टरों, लाइब्रेरी, पैन, कलम, दवात और
पैंटों, धोतियों, साड़ियों समेत !

अब बाकी बची भीड़ में ज्यादातर तो हैं वे लज्जावंत
(उनका तो जिक्र आया ही नहीं !)
जो आंख बचाकर घुस आना चाहते हैं ...
मगर छिपे भी रहना चाहते हैं अंधेरे में !

उदाहरण के लिए एक लम्बी नाक ऊंचे माथे वाला ‘महान’ आलोचक
जिसे सांस्कृतिक पाजामें में घुसने से पहले हमेशा
थोड़ा सिर झुकाना थोड़ी खीसें निकालनी पड़ती हैं
पीछे-पीछे कुछ छोटी नाक वाले रउसके पट्टशिष्य भी
नजर आ सकते हैं ‘हां जी...हां जी...’ करते
जो लम्बी नाक वाले के साथ चाबीदार गुड्डों की तरह हिलाते गर्दन
घुसे चले आते है झुंड की बिेशर्मी से
जैसे बचपन में पढ़ी किसी फोटुओं वाली कहानी में
खरगाश, भालू, शेर, चीता, भेड़िया, लूमड़...
सब घुसे आते थे राहगीर के दस्ताने में
और फिर जैसा होना था, इस्ताना फटा-अंततः फटकर ही रहा।

वैसे ही संस्कृति सचिव का यह फूला-फूला सांस्कृतिक पाजामा भी
अब बाकायदा अमिताभ बच्चन के ‘बम्बू’ वाला तम्बू हो चुका है
और यह तम्बू भी अब फटने-फटने को है
इतनों को मिल चुकी है वहां स्थायी शांति और सुकून
कि वे अब लिखना भूलकर न लिखने के
कारणों पर छत या छातीफाड़ रूदन कर रहे हैं !

बीसियों दफा वह पाजामा चीं-चिर्र कर चुका है
और तीसियों दफा माइक से निवेदन राजधानी के ख्यात
लेखकों से किया जा चुका है
कि वे कृपया उस तंबू से अब भी बाहर निकलकर आएं
क्योंकि बाहर जो धूप, जो हवा है, उसमें अब भी थोड़ी-बहुत
बची हुई संभावना है...
पर सच यह है कि वे अब भी अपवाद ही है
जो इस पाजामें से बाहर हैं !
और इससे भी बड़ा सच यह
कि वे तो कहीं नहीं हैं जो इस पाजामे से बाहर हैं !

मगर...हाय ! इस भरी-पूरी सांस्कृतिक प्रजा और मेले-ठेले,
रंगमंच तूलिकाओं, कविता-उत्सवों के बावजूद
संस्कृति सचिव का जी आजकल अनमना, उदास है
उस मंड़ी की तरह जो अभी तो सब्जियों से लदी-फंदी है
मगर शाम तक तय है कि मारे उमस और गरमी के हो जाएगी बंटाधार
और उसमें से बासीपन की जो गंध उठेगी अझेलनीय
उसमें सचमुच कोई संभावना नहीं होगी!

(4)

मंडी ? - संस्कृति सचिव को उबकाई आ गई है...
कला को मंडी बना देने के बाद अब जो कुछ उनके आस-पास है
उनके सपनों और विचारों में मंडी की तरह गंधाने लगा है !
शायद इसीलिए संस्कृति सचिव का चेहरा कुछ उतरा-उतरा है आजकल
और नर्तकियों के लोचदार सांस्कृतिक कार्यक्रम भी
उन्हें अब रास नहीं आते।

उकताकर बल्कि झपटकर वह फोन उठाते, खड़काते है साहित्य संपादक
की कागजों से लदी-फदी ऊबी मेज पर !
धमकाते हैं खड़ी आवाल में कि
बहुत दिनों से हमारा कुछ छपा-वपा नहीं, चर्चा-वर्चा
नहीं हुई । ऐसे कब तक चलेगा भाईजान
कि आखिर कुछ तो हम भी हैं !

और घिघियाता हुआ साहित्य संपादक उतारकर चश्मा
पसीने-पसीने कुछ कहे, इससे पहले ही
उलटे पांव लौट जाते है देवपुरूष आने एकांत में
औंधे होकर रीतिकाल की रसवंती नायिका के नितंबों पर
श्रमश्लथ कविता लिखने लगते हैं
स्वेद से !

पुनश्चः

इस बीच महीन कटावदार नाक वाली एक युवा कवयित्री जो अभी-अभी
निकली है संस्कृति सचिव के पाजामे से
बालों पर हाथ फेरती, बताती है सांस्कृतिक अदा से
पाजामें से अभी-अभी निकले अपने लड़कीनुमा दोस्त को
कि हाय, कित्ती तो ठंडक किती असीम शांति है संस्कृति सचिव
के झीने पाजामे में
और कित्ते तो बड़े हैं वो अलायबलाय
के मोतीचूर के लम्बे किले के खंडहरों से पसरे हुए दूर तलक
-और कित्ते छोटे हम !

मगर देखो तो यार,
कित्ते प्यार से वो पेश आए कि अंगूठे से
बस चुप्पे से नाक हमारी दबा दी
और मुस्काए मंद-मंद !

कहते-सुनते कपोल हो गए दोनों के
वातावरण एकदम महीन-महीन आध्यात्मिक सा लगने लगा ।