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वे पढ़ते कविताएँ / अलेक्सान्दर ब्लोक / वरयाम सिंह
Kavita Kosh से
जब तक खिलती रहीं तुम्हारी आँखें
मैं उलझा रहा पुस्तक के पन्नों में,
हिम-पक्षी के विशाल परों ने
ढक दिया मेरा दिमाग अंधड़ों से।
बहुत अजीब हैं ये मुखौटों के बोल
तुम उन्हें समझ पाए या नहीं ?
विश्वास है तुम्हें - पुस्तकों में हैं दंतकथाएँ
और मात्र गद्य है जीवन में।
तुम्हारे होते अविच्छिन्न रहेंगे मेरे लिए
यह रात और अंधकार नदी का,
उल्लास-भरी कविताओं की रोशनियाँ
और ठहरा हुआ यह धुआँ।
इतनी निर्मम न रहो मेरे प्रति,
न ही चिढ़ाओ मुझे अपने मुखौटे से,
मेरी अँधेरी यादों में
सुलगाओ न कोई डरावनी याद!