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वे पोथियाँ / शर्मिष्ठा पाण्डेय
Kavita Kosh से
वे पोथियाँ जिनमें लिखा था प्रेम प्रेम और सिर्फ प्रेम
ज़रुरत से ज्यादा पढ़े गए
नज़र की आग से भाप बन उड़ने लगे अक्षर
वे अक्षर जिन्हें बनाना था इतिहास
होना था सुनहरा
समेटने थें युगकाव्य
छूते ही बन गए उँगलियों पर
धब्बे
उन धब्बों से ही घसीट-घसीट कर
लिखे गए मुल्क के लहूलुहान मुस्तकबिल
और जो अक्षर कहीं छुप कर पोथी में बचे रहे थे
उन्होंने रचा