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वे भी नहीं बन पाएँगे बड़े / रंजना जायसवाल

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जब भी उठाती हूँ कलम
फ़र्श खिसखिसाने लगता है
छत के काने जालों से भर जाते हैं
रसोई में बर्तन लड़ने लगते हैं
चूहे और बिल्ली झगड़ने लगते हैं
पति के चेहरे पर झलकने लगता है तनाव
‘आज कुछ स्पेशल खाने का मन था’
वही झाडू, पोंछा, रसोई
बच्चों की जरूरतें वही
पति की चाहतें
सब कुछ वही...वही
औरतों का दायरा बहुत ही छोटा होता है
निकल नहीं पातीं
प्रेम, पति, घर-परिवार से बाहर
लोपामुद्रा और रोमाशा थीं ऋषिकाएँ
की वैदिक मन्त्रों की रचना
पर वर्ण्य-विषय वही का वही
सोच सकती हैं बड़ा
न लिख सकती हैं
सच तो यह भी है
न हों अगर औरतों के दायरे छोटे
वे भी नहीं बन पाएँगे बड़े।