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वेदना / अंतराल / महेन्द्र भटनागर

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घाव पुराने पीड़ा के
जाने-अनजाने में सबके
आज हरे गीले सूजे !
रह-रहकर बह जाती असह्य लहर,
मानो बिजली का तीव्र करेंट ठहर
मांस मौन तड़पा देता !
नाली के कीड़ों जैसा इधर-उधर
जग के सारे ओर-छोर घेरे,
हृदय विदारक
नाशक
मूक अभावों की
धूल भरी अंधी
आँधी बहती जाती !
मर्माहत यौवन चीख रहा
रोक भुजाओं से असफल !
आज निराशा के बादल
छाये नभ में उमड़-घुमड़ ;
जीवन में,
जन-जन-मन में हलचल !

आज युगों के घाव हरे !
हर उर में
दुख-दर्द भरे !

रचनाकाल: 1949