भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वेदना का मौन / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
मैं अकेला ही भला, यह भीड़ लेकर क्या करूँगा
अटपटे स्वण कर्ण-वेधी, मीड़ लेकर क्या करूँगा
यह निपट एकान्त, ये निःशब्द-
क्षण, ये रिक्त घड़ियाँ
यह खुला आकाश नीरव,
मोतियों-सी अश्रु लड़ियाँ
वेदना का मौन, पीड़ा की खुली लय को चुनौती
इस अबोली टीस को स्वर-भार देकर क्या करूँगा
स्वप्न में आये-गये जो-
सत्य, वे शिव थे न सुन्दर
इसलिये स्वीकार उनको-
कर सके कब गीत के स्वर
गीत अनगाये लगे इन श्रुति-पुटों को रूचिर, मनहर
हर लहर कुहराम, मन की तरी खेकर क्या करूँगा
दृष्टि हर दिक्भ्रान्त, ये नंगे कलेवर क्या करूँगा