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वेलेंटाइन डे / कुमार कृष्ण

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प्रेम कोई दवा की पुड़िया नहीं
गटक लो पानी के साथ
पैदा होने लगे पेट में प्रेम
प्रेम कोई तस्वीर नहीं
ले आओ खरीद कर बाजार से
और टाँग दो किसी दीवार पर
नष्ट कर चुकी है यह शताब्दी
प्रेम के तमाम बीज
काट डाले हैं इस डिजिटल सदी ने
वे तमाम पेड़
जिनकी छाँव में सोया रहता था प्रेम
जिसके चारों ओर होती थीइन्तजार की खामोश दुनिया
सपनों की सुन्दर गुफाएँ
छुपा रहता था प्रेम हाथों की लकीरों में
काग़ज़ के पृष्ठों पर
उड़ता था अंतर्देशीय पंखों के साथ
प्रेम नहीं पहनता था जूते
वह चलता था सिखर दोपहर में नंगे पाँव
वह जानता था छुपाना-
धरती की तमाम खूबसूरत चीजें
रंग-बिरंगे बटुए में
प्रेम था भाषा का बहुत बड़ा जादूगर
सौगन्धों का शब्द कोश
वह था चाँद का रुमाल इस धरती पर
दिन-रात खुला छोटा सा झरोखा
बालों के जंगल में खुशबू का झोंका
प्रेम था कंधों के तकिये पर तितली की नींद
गर्म हथेलियों पर उगा आग का फूल
आज हँस रहा होगा डिजिटल मनुष्य पर
जिसने मुकर्रर किया 14 फरवरी प्रेम का दिन
दादी की भाषा की तरह
बहुत मुश्किल है उसका लौटना
इस धरती पर
कहीं किसी को दिखे
तो पकड़ लेना दोनों हाथों से
बस पकड़ कर रखना
अपनी अंतिम साँस तक।