भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे / भजन
Kavita Kosh से
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे
पीर परायी जाणे रे
पर- दुख्खे उपकार करे तोये
मन अभिमान ना आणे रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे ॥
सकळ लोक मा सहुने वंदे
नींदा न करे केनी रे
वाच काछ मन निश्चळ राखे
धन- धन जननी तेनी रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे ॥
सम- द्रिष्टी ने तृष्णा त्यागी
पर- स्त्री जेने मात रे
जिह्वा थकी असत्य ना बोले
पर- धन नव झाले हाथ रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे ॥
मोह- माया व्यापे नही जेने
द्रिढ़ वैराग्य जेना मन मा रे
राम नाम शुँ ताळी रे लागी
सकळ तिरथ तेना तन मा रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे ॥
वण- लोभी ने कपट- रहित छे
काम- क्रोध निवार्या रे
भणे नरसैय्यो तेनुँ दर्शन कर्ताँ
कुळ एकोतेर तारया रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे ॥