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वो / दोपदी सिंघार / अम्बर रंजना पाण्डेय

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आदमी बनाती अपना उसे

गहने के नाम के गिलट की नथ तक नहीं दी
गहनों के नाम पर लाया एक दराँती हाट से
बोला, 'यहीं है अपना गहना अपना चाँद, अपना प्यार' ।

उन्नीस साल की उमर
 बताओ भला, दराँती को मानती गहना

फिर एक रात आया ।
काका मेरे गए थे मंडला
काकी बुखार में बड़बड़ाती है ।

रसोई में बुलाया आधी रात
खोल दिए ब्लाउज के बटन
मैंने उसकी दी दराँती निकाल ली

खिलखिलाके हँसा
चुटिया खींच के गले भींच लिया ।

उसके बाद कभी नहीं आया
न मिली उसकी लाश

जिसको अपना मर्द बनाना चाहती थी
उसकी लाश की बात करते
रोना नहीं आता

कहता था वो
बचाना हो दोपदिया तो गुस्सा बचाना
जैसे बचाता है तेरा काका रुपैया ।