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वो आना चाहती है-4 / अनिल पुष्कर
Kavita Kosh से
अब तक मौसम में पलाश खिले थे
वह रातरानी के वक्त तक ख़ुशबुएँ समेट लेते हैं
जैसे कि प्रेम की तमाम यादें हमने रखी हैं छुपाकर
अब शाखों पर लदे, राजपथ तक फैले
केसरिया रंग के फूल बिछे हैं
बाग़ीचों के चारो ओर उपवनों को निहारते हुए
उस केसरिया ख़ारदार गुल के पुन्केशर है मुझमें
वशीभूत नहीं हूँ मैं, मगर
नींद में, ख़्वाबों-ख़यालों के भीतर
आने से नहीं रोक सकती
मैं आऊँगी
तो वह मेरे साथ-साथ होगा
तुम इस प्यार की खातिर उसे रिझाए रखना ।