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वो जो गए हैं घर से / प्रतिमा त्रिपाठी
Kavita Kosh से
वो गए हैं जो ..घर से लौटे ही नहीं
दहलीज़ पे बैठा इंतज़ार बूढ़ा हो गया !
उतरती हुई सीढियां थक गईं हैं
चढ़ती हुई सीढ़ियों का दम फूलता है !
ख़ुश्क दरीचों के चेहरे उतर गए
मेज़ पे किताबें धूल फांकती रही
चश्में का आइना चिटक गया
शमाँ जो आखिरी थी घर में
वो अपने हौसले के दम पे जलती रही
वो जो गए हैं घर से..लौटे ही नहीं !