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वो नशीली-सी झील मस्तानी / उमेश पंत

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वो नशीली सी झील मस्तानी
गुनगुनी धूप गुनगुना पानी ।

आज सूरज चाँद बनके बिखरने-सा लगा
बनके तारा पानी में उभरने-सा लगा ।

बूँदों में पसरने लगी दूधिया पिघलन
जैसे पानी में ही बस आया हो चमकता सा चमन ।

घिरती चट्टानों का बनता वो वलय
उनकी गोदी से वो सूरज का उदय ।

रात को शहर डूब-डूब के तिरता है यहाँ
बनके आवारा-सा अंधेरे में फिरता है यहाँ ।

रगों में तैरती सिहरन भी नशे जैसी है
सर्द रातों में डूबती हुई मदहोशी है ।

धूप पेड़ों की पत्तियों से ओस-सी टपके
रुह में जाती है उतर गर्माहट छनके ।

आज दो पालों से तारे खे लें
आज गीली-सी रोशनी ले लें ।

आज पूछें न कुछ जानें कि ज़िन्दगी क्या है ?
आज महसूस करें राजे दिललगी क्या है ?

तैरते चमकते सारे जवाब सामने सवाल है क्या ?
कैसे कह दूँ कि नैनीताल है क्या ?