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वो मौत के आकर करीब यह सोच-सोच पछताया है / पल्लवी मिश्रा

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वो मौत के आकर करीब यह सोच-सोच पछताया है,
हीरे सा अनमोल यह जीवन, माटी के मोल गँवाया है।

स्याह बुर्के के पीछे हुस्न से भी हसीं था कोई,
राज ये तो तब खुला उसने जब नकाब उठाया है।

भुलाने की कोशिश नाकाम, तमाम उम्र करते रहे हम,
बेवफाई का जिक्र छिड़ा जब, वो बहुत याद आया है।

साथ न देगा कोई हमसफर, तन्हा ही यहाँ से जायेंगे,
फिर इसपे चर्चा ही क्यों, अपना है कौन, कौन पराया है?

खुशियों का कभी अंबार लगा, आँसू का कभी सैलाब बहा,
तकदीर की इस धूप-छाँव से कौन यहाँ बच पाया है?

दुश्मनों से बचते रहे, दोस्तों का संग न छोड़ा,
दोस्त बनकर आया था वो, जिसने ये कहर बरपाया है।

सात सुरों की स्वर-लहरी पे झूमते-गाते कभी थे,
शोर से एटम बमों के, आज जहाँ थर्राया है।

पाक हम सब रख सके न इक इबादतगाह को भी,
चंद वतन के सिरफिरों ने इसमें दरिया-ए-खून बहाया है।