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व्याकुल हैं मन-प्राण / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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224
मैं तुमसे कैसे मिलूँ, व्याकुल हैं मन- प्राण।
कण्ठ कभी मेरे लगो, मिले व्यथा से त्राण ।
225
हर पल हित मन में रहे, हो निश्छल व्यवहार।
मीत मिलें ऐसे जिसे, करना जीभर प्यार।।
226
मेरे मन में यूँ बसो, जैसे बसती पीर।
तुम्हीं मिलो केवल वहाँ, देखो सीना चीर।
227
जीवन के संग्राम में, जो न मानते हार।
एक दिन पहुँचते वही, सागर के उस पार॥
228
प्रभुवर जिसके साथ हों, भागें दूर पिशाच।
सन्मार्ग पर जो चले, उसे न आती आँच॥
229
प्रियवर का हर पल भला, मेरी इतनी साध।
बना रहे हर जन्म में, मधुमय प्रेम अगाध॥
230
सब कुछ मुझसे छीन ले, हे मेरे करतार।
मेरे अपने हों सुखी, बस इतनी मनुहार।
231
जीवन में खुशबू भरे, सद्भावों के रंग।
नयनों में तिरती रहे, निर्मल प्रेम उमंग।
232
दिल से हट पाती नहीं, तेरी सुरभित याद।
जीवन में मिलना कभी, बस इतनी फ़रियाद।
233
अम्बर को छूने लगा,जब तेरा अनुराग ।
इस दुनिया को क्या कहें, रोज़ लगाती दाग़ ॥
234
मेघा बरसें प्रेम के, भीगा मन- आकाश।
एक बार तुम आ मिलो, बँध जाओ भुजपाश।
235
तन से हँसते वे दिखे,जो मन से बीमार ।
मन मिलने पर टूटती, जो खींची दीवार ॥