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शंकर मार्किट के सूचिकार / जय छांछा

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नई दिल्ली आने के बाद
कोई दिन ऐसा नहीं बीता
जब शंकर मार्किट नहीं पहुँचा हूँ मैं ।
इसलिए तो नई दिल्ली, वास्तव में
मुझे ऐसी लगती है
मानो नई दिल्ली में
एक शंकर मार्किट है
और दूसरा मैं ।
 
शंकर मार्किट निरुद्देश्य मेरा गंतव्य
शंकर मार्किट मेरी अनियोजित यात्रा का बिंदु
पता नहीं क्यों मैं
हमेशा ही जाया करता हूँ, और निरन्तर
एक अनजान खुशी, बगलों में लिए
वापस लौटता हूँ ।

मैं जितनी बार भी शंकर मार्किट पहुँचता हूँ
उतनी ही बार सूचिकारों के सामने होता हूँ
जब मैं उनके सामने पहुँचता हूँ
स्मित मुस्कान संग स्वागत करते हैं वे
और खाली कुर्सी पर बैठने का अनुरोध भी ।

सुबह-सुबह पहुँचता हूँ जब
वे कर्मशील सूचिकार
दूध, चायपत्ती
और चीनी सी रहे होते हैं
दोपहर के समय पहुँचता हूँ जब
वे स्वाभलंबी सूचिकार
नून, तेल औ आटा सी रहे होते हैं
और शाम के वक़्त पहुँचता हूँ जब
सब्ज़ी, मसाला, चावल आदि सी रहे होते हैं ।
इसी तरह वे सूचिकार
परिचित-अपरिचित सभी के
हर्ष सीते हैं, ग़म सीते हैं
सुंदरता सीते हैं, खास सीते हैं
राजनीति सीते हैं, कूटनीति सीते हैं
समय का काटामय बन कर
सूर्य की किरण जैसी सूई में
संवेदन की धागों की मदद से
विभाजित समय को जोड़ते हैं हरदम ।
 
वैसे तो देखने वाले कहा करते हैं
वे सूचिकार
अपने ही परिवार के लिए सीते हैं
अपने गुज़ारे के लिए सीते हैं
और छिन्न-भिन्न हो कर अपनी ही उम्र को
जाने-अनजाने सी रहे होते हैं
लेकिन जो बात मेरी समझ से परे है
क्यों सूचिकार की कंधे से फटी है
जो उसने पहनी कमीज़ है?

मूल नेपाली से अनुवाद : अर्जुन निराला