शंखनाद / भारत भाग्य विधाता / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'
मालवीय के बी. एच. यू. के, नींव महोत्सव के हौ रंग,
राजा-रजबाड़ा के हाकिम, जैमेॅ कि अंग्रेजो संग ।
सबने सब कुछ बहुत कहलकै, पर गाँधी के बात अलग,
सुनी-सुनी के राजा-रैयत, होवेॅ लागलै अलग-थलग ।
पर गाँधी के राष्ट्र प्रेम के सुर उठलै तेॅ ठठले गेलै,
चकित अतिथि भीतरे-भीतर, माननीयो आतंकित छेलै ।
भारत मेॅ अंग्रेजी सत्ता, के खुललै सब चाल,
आरो एकरोॅ शासन मेॅ, की छै भारत के हाल ।
की छै राजा-धनपतियो के, हीन-दीन करतूत,
शासन आगू चुप हेनोॅ ज्यों, बच्चा देखेॅ भूत ।
की नै कहलकै गाँधी जी नेॅ, के दोषी ठो बचलै ?
केकरो तेॅ अच्छा ही लागलै, केकरो कुछ नै पचलै ।
कहते-कहते यहू कहलकै, जों अंग्रेज नै हित मेॅ,
तेॅ छोड़़ौ ई देश अभी ही, रोकौ राज तुरत मेॅ ।
एक बार जे गाँधी जी के, फुटलै मन के आग,
जलतै रहलै आखिर तक ऊ, बिना जलैलै बाग ।
बापू के स्वर गूंजेॅ लगलै, प्रान्त-प्रान्त के बीच,
होलै-होले सेॅ स्वराज भी, ऐलै बहुत नगीच ।