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शख़्स मैं आदी ज़लालत का नहीं / हरि फ़ैज़ाबादी
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शख़्स मैं आदी ज़लालत का नहीं
दौर ये वरना शराफ़त का नहीं
लाख कुछ हो, है नहीं तहज़ीब तो
पास उसके कुछ विरासत का नहीं
चाहता मैं ही नहीं तन्हा उसे
कौन ख़्वाहिशमंद शोहरत का नहीं
बेचकर ख़ूँ पेट भरके कुछ करो
भीख का धन्धा तो इज़्ज़त का नहीं
हुस्न दौलत के बिना बेकार है
हक़ ग़रीबों को नज़ाकत का नहीं