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शब्द, शब्द, शब्द / गुलाब खंडेलवाल

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शब्द, शब्द, शब्द
 
जब कुछ भी नहीं था
तब भी शब्द थे,
जब कुछ भी नहीं रहेगा
तब भी शब्द रहेंगे,
 
अनुभव के पूर्व
और अनुभव के बाद,
चाहे उन्माद कहें चाहे अवसाद,
एकमात्र शब्द ही रहेंगे निर्विवाद.
 
अस्तित्व को भेदकर अनंत आकाश में
शब्द ही विहग-से उड़ सकते हैं,
शब्द ही कन्हैया-से
काल-कालिय के भग्न भाल पर थिरकते हैं.
शब्द से परे कुछ है भी कि नहीं
कौन जानता है, भला!
शब्दों से जहाँ तक दिखता है लिखा,
ज्ञान-दीप वहीं तक जला.
इतिहास जो शब्दों से छूट गया,
विस्मृति, अनस्तित्व में विलुप्त हुआ,
टूट गया.
शब्द ही ब्रह्म है,
शब्द ही वेद है,
जीव और ईश्वर में
शब्द ही का भेद है,
शब्द ही माया है,
शब्द आनंद है,
शब्द से प्रकृति का
समस्त दुख-द्वंद्व है,
शब्द ही विमुक्ति का अमृतमय छंद है,
और अनस्तित्व के पिटारे में मूर्छित-सा
शब्द का ही शेषनाग बंद है.
 
इसीलिये मैं भी निज चेतना को
शब्दों से सजाता हूँ
भागती लहर के प्रवाह में से
चुन-चुनकर मुक्ताकण लाता हूँ.