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शब्द-सैनिकों से / रणजीत
Kavita Kosh से
जाओ !
ओ मेरे शब्दों के मुक्ति-सैनिको, जाओ !
जिन-जिन के मन का देश अभी तक है ग़ुलाम
जो एकछत्र सम्राट स्वार्थ के शासन में पिस रहे अभी हैं सुबह-शाम
घेरे हैं जिनको रूढ़ि-ग्रस्त चिन्तन की ऊँची दीवारें
जो बीते युग के संस्कारों की सरमायेदारी का शोषण
सहते हैं बेरोकथाम
उन सब तक नई रोशनी का पैग़ाम आज पहुँचाओ
जाकर उनको इस क्रूर-दमन की कारा से छुड़वाओ !
जाओ,
ओ मेरे शब्दों के मुक्ति-सैनिको, जाओ !