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शब्द की खनक / चिन्तामणि जोशी
Kavita Kosh से
छलकते श्रम कणों का स्वाद
जो चख न पाई
वह जीभ कैसी
गौशाला-गोबर की गंध
जो सह न पाई
वह नाक कैसी
देख पाई नहीं
अपने अ्रंतस का भूदृष्य
वह आँख कैसी
ठिठक गए
देख कुचले दबे व्यक्ति का हाथ
वह हाथ कैसे
रुक गए अनायास
पथरीली राह के पास
वह पाँव कैसे
सुन न पाये
टनों मिटटी उलट
सतह के नीचे से निकले
शब्द की खनक
वह कान कैसे
मैं निहारूंगा सदा
चोटियों पर टँगी
फरफराती झंडियाँ
मैं सुनुंगा जरूर
लहरों में बजती
सितारों की घंटियाँ
टटोलूंगा अंतर्यात्रा के पड़ाव
सहेज लूंगा लब्ध को
मैं सुनुंगा जरूर
तुम्हारे खनकते शब्द को।