शयन यान / विजय कुमार
रात हमने देर तक बातें की
हमने कहा कि अब साँठ-गाँठ से जिया नहीं जाता
एक लपट जलती है कान की लवों पर
एक ज्वर बना हुआ निरन्तर
हम शोक सन्तप्त थे नशे में
पुराने अशआर
और
महापुरुषों के कुछ नुकीले कथनों को याद करते हुए
खिड़की के बाहर एक असीमित आकाश
हमारी किसी भी बात पर हँसता था
उनीन्देपन में जीवन के तलघर में
इस तरह ये जमा होती जाती हैं कितनी ही परछाईयाँ
रात के पहाड़ के नीचे कितनी सारी विस्मृतियाँ
हमसे कोई बोला कि हम हर चीज़ को उलट पुलट देना चाहते हैं
कोई सिरा मिलता है इन्हीं अचानक सघन ख़ामोशियों में
और इस तरह से ली गई विदा
और फिर लिख ली गईं तुरत-फुरत कुछ कविताएँ
जिनमें उम्मीद का एक मुहावरा था
हम समझ रहे थे कि हम उतार रहे हैं कर्ज़
एक समझदार आदमी हर किसी के पीछे खड़ा था
सर्जनात्मकता, तोष, पुलक, मद
रुको-रुको
यह जो ख़ामोशी है
यह टूटी कहाँ है
शब्द तैर रहे हैं छायाओं पर
हर वाक्य के आख़िर में ये अन्तराल
ये एक भाषा के पुराकोश में छिपकर बैठ जाते हैं।