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शरद की सुबह / विवेक चतुर्वेदी

शरद की सुबह
कभी कभी इतनी मुलायम होती है
जैसे सुबह हो खरगोश की गुलाबी आँख
जैसे सुबह हो पारिजात के नन्हें फूल
जैसे सुबह हो झीना सा काँच
कभी कभी सुबह को सुनने और छूने
में डर लगता है
कि जैसे अभी दरक जाएगा एक गुनगुना दिन।