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शराब-ए-नाब से साक़ी जो हम वज़ू करते / रियाज़ ख़ैराबादी

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शराब-ए-नाब से साक़ी जो हम वज़ू करते
हरम के लोग तवाफ़-ए-ख़ुम-ओ-सुबू करते

वो मल के दस्त-ए-हिनाई दिल लहू करते
हम आरज़ू तो हसीन ख़ून-ए-आरज़ू करते

कलीम को न ग़श आता न तूर ही जलता
दबी ज़बान में इज़हार-ए-आरज़ू करते

शराब पीते ही सज्दे में उन को गिरना था
ये शुग़्ल बैठ कर मय-नोश क़िबला-रू करते

हर एक क़तरे से बहती ‘रियाज़’ जू-ए-शराब
जो पी के हम सर-ए-ज़मज़म कभी वज़ू करते