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शराबी की सूक्तियाँ-71-80 / कृष्ण कल्पित

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इकहत्तर

कितना पानी बह गया
नदियों में
'तो फिर लहू क्या है?'

लहू में घुलती है शराब
जैसे शराब घुलती है शराब में।


बहत्तर

'धिक् जीवन
सहता ही आया विरोध'

'कन्ये मैं पिता निरर्थक था'

तरल गरल बाबा ने कहा
'कई दिनों तक चूल्हा रोया
चक्की रही उदास'

शराबी को याद आई कविता
कई दिनों के बाद।


तिहत्तर

राजकमल बढ़ाते हैं चिलम
उग्र थाम लेते हैं।

मणिकर्णिका घाट पर
रात के तीसरे पहर
भुवनेश्वर गुफ़्तगू करते हैं मज़ाज़ से.

मुक्तिबोध सुलगाते हैं बीड़ी
एक शराबी
माँगता है उनसे माचिस।

'डासत ही गई बीत निशा सब'।


चौहत्तर

'मौ से छल
किए जाय हाय रे हाय
हाय रे हाय'

'चलो सुहाना भरम तो टूटा'

अबे चल
लकड़ी के बुरादे
घर चल!

सड़क का हुस्न है शराबी!


पचहत्तर

'सब आदमी बराबर हैं
यह बात कही होगी
किसी सस्ते शराबघर में
एक बदसूरत शराबी ने
किसी सुन्दर शराबी को देख कर।'

यह कार्ल मार्क्स के जन्म के
बहुत पहले की बात होगी!


छिहत्तर

मगध में होगी
विचारों की कमी

शराबघर तो विचारों से अटे पड़े हैं।


सतहत्तर

शराबघर ही होगी शायद
आलोचना की
जन्मभूमि!

पहला आलोचक कोई शराबी रहा होगा!


अठहत्तर

रूप और अन्तर्वस्तु
शिल्प और कथ्य
प्याला और शराब

विलग होते ही
बिखर जाएगी कलाकृति!


उनासी

तुझे हम वली समझते
अगर न पीते शराब।

मनुष्य बने रहने के लिए ही
पी जाती है शराब!


अस्सी

'होगा किसी दीवार के
साए के तले मीर'

अभी नहीं गिरेगी यह दीवार
तुम उसकी ओट में जाकर
एक स्त्री को चूम सकते हो

शराबी दीवार को चूम रहा है
चाँदनी रात में भीगता हुआ।