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शहर में उसके दुःख बसता है / गगन गिल

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शहर में उसके
दोस्त नहीं,
उसके न होने का दुःख बसता है

दोस्त तो है
किसी दूसरे शहर में
किसी दूर दराज घर में
या दफ्तर में –
उसकी आँखों से दूर
उसकी धडकन से दूर
उसकी चेतना से दूर

कुछ भी हो सकता है वहां उसके साथ
रिस सकती है गैस
भडक सकते हैं दंगे
गिर सकता है दोस्त उसका
गश खा कर यूँ ही
सरे राह,
और अगर सब ठीक चलता रहे
तो भी हो सकता है वह उदास
यूँ ही, बेवजह

पता नहीं वह कितना सुरक्षित होता
हर अनहोनी से,
अगर वह होती उसके शहर में
कितना सुखी होता?
होता भी कि कि नहीं?

लेकिन अगर वह होता उसके शहर में
वह देखती उसके बच्चे का मुँह
होता अगर उसके पड़ोस में
वह लगाती उसके बच्चे को सीने से

शायद होता कुछ कम इससे खालीपन
न भी होता तो
बाहर लौटती
भूली-सी एक साँस

एक बहुत मुश्किल लगनेवाले दिन
जाती वह उसके घर
भर लती आक्सीजन
आनेवाले दिनों की

लेकिन दोस्त होता जो उसके शहर
तो कोई दिन भला
मुश्किल क्यों होता?

पता नहीं उसके रहते भी
नींद चैन की उसे
आती कि नहीं?

सीने में सोग था जिसका
उस बच्चे के प्रेत की
तब भी मुक्ति होती कि नहीं?

कह पाती कि नही
किसी-किसी शाम खुलते
सुख- दुःख के रहस्य की बात?

शहर में उसके
दोस्त नहीं
उसका दुख बसता है.