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शहरी सभ्यता / कामिनी कामायनी
Kavita Kosh से
नित ऊपर उठै छै मचान,
नै आँगन बांचल नै दलान।
घर स गरबहिया दैत घर,
ऊपर स नीचा,घरे घर।
नै कत्तों कनिओ त जमीन,
पातर देवार जंगला महीन।
जौ सोर करै किओ ज़ोर ज़ोर,
मन भ जायत अछि अति घोर।
मन भ जायत अछि देखि विकल,
सभ्यता के ई नव नागफास।
केहन जुग अब आबी बसल।
नहीं छै कनिओ उल्लास आब।
धरती स ऊपर उठैत स्वप्न,
नीचा पैरक बस परिताप।
नै मर्यादा के बोल रहल,
नै मधुर,मीठ कल्लोल रहल।
सब दिशा मे तीव्र स तीव्र सोर,
बहिरा के गाम मे बसल लोक।
नै आंखि मे पानी एक बूंद,
नै धरती पर हहराति जल।
सबटा परिभाषा बदली गेल,
जुग ठाढ़ एतय ठीठीयाय रहल।
ई नव नुकूत इतिहास गढ़त,
शहरी सभ्यता के माया जाल।।