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शह्र आकर ये बात / ज्ञानेन्द्र पाठक
Kavita Kosh से
शह्र आकर ये बात जानी है
ज़िन्दगी गाँव की सुहानी है
बूँद हूँ ओस की मगर मुझसे
क्यूँ समन्दर ने हार मानी है
इक समंदर से मिल के खो जाना
हर नदी की यही कहानी है
राहे उल्फ़त से तुम नहीं डिगना
इक यही अम्न की निशानी है
दर्द ने लम्स से कहा यारा
चोट दिल पर बहुत पुरानी है
या ख़ुदा मुझको बख़्स दे दौलत
इक ग़ज़ल की किताब लानी है
इश्क़ सीरत से तुम करो 'पाठक'
रंग फ़ानी है रूप फ़ानी है