शादी की उम्र में नौकरी की चिंता / निशांत
चौबीस साल
पच्चीस साल छब्बीस साल
उनतीस साल इकतीस साल
तैंतीस साल और अब पैंतीस साल
इतनी उम्र कम नहीं होती शादी के लिए
अब तो शादी कर लो बेटा-घरवाले फोन पर कहते
इसी डर से जल्दी घर नहीं जाता
किसी की शादी में तो एकदम नहीं
छोड़ो उसे
और उस प्रसंग को
घरवालों को कहो
या कहो तो मैं देखुँ–बड़े भाई कम
दोस्त सरीखे गौतम दा कहते
जुनियर संजय ने मजाक में ही सही
पर एकदिन कह ही दिया
भैया कर लीजिए शादी, नहीं तो
एक्सपायरी डेट में चले जायेंगे
कुछ काम समय से हो जाना चाहिए
उन्हें समय से कर लेने में ही भलाई है
जैसे शादी
जैसे नौकरी
बात यह नहीं है कि मैं नौकरी कर रहा हूँ
बात यह है कि उस नौकरी में पैसे बहुत कम है
एक बार हंसते हुए गुरूवर केदारनाथ सिंह से मैंने कहा था
गुरू जी इतने कम पैसे में बीवी छोड़कर भाग जायेगी
वे भी हंसने लगे थे
एक अहिंसक चमकीली हंसी
जब क्लास में बी. ए के बच्चों को
अपना परिचय देते वक्त कहता हूँ–
मैं बिजय कुमार साव
एम.ए, एम.फिल, पिएच.डी फ्राम जे.एन.यू
यहीं कॉलेज के बगल में रहता हूँ
उम्र छत्तीस साल
अभी तक कुंवारा हूँ
तो बच्चियों की आँके बड़ी-बड़ी हो जाती है
तब मुझे वह विज्ञापन याद आता
मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता
, ।कई बच्चों ने पूछा–
सर अभी तक शादी क्यों नहीं किए
मैं हारकर कहता–हाथी खरीदने से ज्यादा
उसके खुराक का जुगाड़ कर लेने में बहादूरी है
इस तरह पहले दिन से क्लास जमने लगता
बच्चों को पहले बतला दिया करता था
मैं सिर्फ़ सोम मंगल बुध आता हूँ
पार्ट टाईमर हूँ और मेरी तनख्वाह
नौहजार चार सौ पचास रूपये है और यह सरकार
नेट स्लेट जे आरएफ पी.एचडी किये हुए हम बच्चों से
ठेके के मजदूरों की तरह करती है व्यवहार
ज्यादा खटवाकर कम देती है पैसे
तो उनकी निगाहें बदल जाती थी
एक शिक्षक से
एक बेचारे की तरह दिखने लगता था मैं उन्हें
एक आश्चर्य की बात बतलाऊँ
तब बेचारा जैसा ही पढ़ाने लगता था उन्हें
अब कहता हूँ–दाल रोटी भर मिल जाता है
तो कर लीजिए सर शादी
हाँ, हाँ बस सब्जी का जुगाड़ हो जाए
तो कर लूंगा शादी
और बच्चे हँसने लगते
लड़कियाँ कुछ ज़्यादा ही खी-खी खी करके
कलकत्ता ही नहीं
वहाँ त्रिपुरा छत्तीसगढ़ और दिल्ली तक में
उच्च शिक्षा को
मजदूरों की भेड़ में तब्दील कर दिया गया है
तीन स्थायी पद के लिए
चार सौ दो अभ्यार्थियों को बुलाया जा रहा है
मेरी एक क्लासमेट का इसी चक्कर में ब्रेकअप हो चुका है
कई बच्चे का रिस्क नहीं ले रहे है
पढ़ने लिखने छपने से हमारा विश्वास उठता जा रहा है
और सरकारें कहती है
सरवाईवल ऑफ द फिटेस्ट
इतना पढ़ने–लिखने का क्या मतलब हुआ?
अब पिता नहीं पूछते
खूद से पूछने लगी है आत्मा
मुटिया–मजदूर बनने तक की ताकत
चुरा ले गई है यह पढ़ाई
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया मुक्तिबोधीय पंक्ति
बड़ी मौजूं लगने लगती है
इस पढ़ाई के संदर्भ में
कभी कभी बी.ए के न बच्चों को देखकर
बड़ा ही दुखी हो जाता है मन
बच्चों को बेहतर बनाने का लक्ष्य
इस पूँजीवादी व्यवस्था में
खो गया है कालनेमी की गुफा में
जो मशीन नहीं बन सकता
वो मरने के लिए तैयार रहे या
किसी मानसिक बीमारी के घर में रहने के लिए
दूर के ढोल बड़े सुहावने लगते हैं
जब टूटेगा यह भ्रम
तो क्या होगा इन बच्चों का सोच कर
क्लास रूम में माथे पर चुहचुहा आता है पसीना
बच्चे पूछते हैं–सर तबीयत तो ठीक है?
मैं कहता हूँ–हाँ, गर्मी बढ़ गई है, आजकल
जनसंख्या एक बड़ी समस्या है
या भ्रष्टाचार
या भाई भतीजाबाद
या गुरु चेला प्रभाववाद
या पर्वत पठार सौन्दर्यवाद
समझ में तो सब आता है
पर समझ भी नहीं पता
इतनी नौकरियों की भीड़ में
एक मनचाही नौकरी चाहिए
एक नौकरी हो जाती तो शादी भी हो जाती।