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शान्त रात / अनीता वर्मा
Kavita Kosh से
मैं पहाड़ी हवा थी
बादलों के नीचे पत्तों की गोद में बहती हुई
नीली रोशनी पर सवार
पानी में अपने पैर टिकाए रहती थी |
गाती थी मूँगे और पंखों के गीत
सफ़ेद घोड़ों के अयाल सहलाती
किसी पुरानी गुफ़ा की आँच में डूबी
हाथ की अँगूठी चुम्बनों की बनी हुई |
अब जबकि कोई नहीं है मेरे साथ
बँटी हुई है वह हवा दो खण्डों में पूर्वी और पश्चिमी
मधुमक्खियों ने बिखेर दिया है सारा शहद
समुद्र से उड़ती रहती है भाप और बादल नहीं बनता
समय के पैरों में चकाचौंध की बेड़ियाँ हैं
मैं देखती हूँ अपने उत्सव की नदी को
बहते हुए इस शान्त रात में