भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शाम / श्रीनाथ सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कैसी घड़ी शाम की आई।
पच्छिम में है लाली छाई
गलियों में गौधूलि छाई।
हल बैलों ने छुट्टी पाई ।
हिलती हैं अब नहीं लताएँ।
लौट रही हैं वन से गायें।
खुश हो हो किसान गाते हैं।
खेतों से घर को आते हैं।
पेड़ों पर कोलाहल छाया।
चिड़ियों ने है शोर मचाया।
गई बालकों से घिर नानी।
सोच रही है नई कहानी।
मोहन अब खा चुका मलाई।
चंदा मामा पड़े दिखाई।
लल्ली भी गाती है लोरी।
कहती - सो जा गुड़िया गोरी।
उतर रही है नींद निराली।
ले सुंदर सपनो की जाली।
बंद हुए सब खेल खिलौने।
बच्चों के बिछ गये बिछौने।
क्यों दीपक से खेल रहे हो?
लगा हाथ में तेल रहे हो?
देखो क्या कहते हैं तारे।
शाम हुई सो जाओ प्यारे।