भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शाम और मज़दूर-3 / अख़्तर यूसुफ़
Kavita Kosh से
मज़दूर शाम के साथ घर लौट रहा है
गलियाँ जल्दी और जल्दी सुनसान हो रही हैं
गाँव में कभी बिजली नहीं आती है अकसर गिर जाती है
तेल मिट्टी का अब शहर में लोग पीते हैं अधर का
पानी मरता जाता है मज़दूर और शाम जाने कब से
साथ-साथ जीते हैं और रोज़ झोंपड़ी के अन्दर
रात को ओढ़ कर सोते हैं ख़्वाब में देखते हैं मुर्ग़ा
खलियान पे चढ़ कर बार-बार बांगता है शाम और मज़दूर
मज़दूर डरते हैं चौंक-चौंक जाते हैं साला दुश्मन
हमारा ख़्वाब में मज़दूर बड़बड़ाता है।