भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शाम छत पर उतर गई होगी / हुसैन माजिद
Kavita Kosh से
शाम छत पर उतर गई होगी
दर्द सीने में भर गई होगी
ख़्वाब आँखों में अब नए होंगे
ज़िंदगी भी सँवर गई होगी
मैं तो कब से उदास बैठा हूँ
ज़िंदगी किस के घर गई होगी
एक ख़ुश्बू थी साथ में अपने
कौन ढूँढे किधर गई होगी
उस का चेहरा उदास है ‘माजिद’
आईने पर नज़र गई होगी