शाम भी हँसकर ढले / धीरज श्रीवास्तव
कौन आकर रंग लब का,रात भर मुँह पर मले।
छू रहा यौवन हमारा,ख्वाब में मिलकर गले।
अब लगे चलना भला क्यों
जानकर भी शूल पर !
हँस रहीं हैं कामनायें
बैठकर अब शूल पर !
मुस्कुरातीं रोज सुबहें,शाम भी हँसकर ढले।
कौन आकर रंग लब का,रात भर मुँह पर मले।
गीत अक्सर छेड़ करके
मुस्कुराती रागनी !
खिड़कियों से आजकल है
झाँकती ये चाँदनी !
कौन पलकों में हमारी,रोज ही छुपकर चले।
कौन आकर रंग लब का,रात भर मुँह पर मले।
इस हृदय के साथ तन भी
सिर्फ उसका साथ दे !
और कहता अजनबी के
हाथ अपना हाथ दे !
तंज कसती चूड़ियाँ भी,साँस ये अक्सर जले।
कौन आकर रंग लब का,रात भर मुँह पर मले।
डाह करती अप्सरायें
सुख हमारा देखकर !
चाँद तारे बौखलाये
खेल सारा देखकर !
सच कहूँ सबसे सुखी हूँ,आज इस अंबर तले।
कौन आकर रंग लब का,रात भर मुँह पर मले।