भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शाम वाली डाक से ख़त / नईम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शाम वाली डाक से ख़त
आज आया प्यार का।

यह सुबह, वह शाम
कटते कट गए, बीसों बरस,
आज अपने आप पर
आया मुझे बेहद तरस;

क्या कभी होगा हरा फिर
ठूँठ यह कचनार का?

हो गए जो धूल
उनको फ्रेम करवाया नहीं,
भूलकर भी भूल से
वह नाम दुहराया नहीं;

फर्क़ भी जाता रहा
शनिवार या रविवार का।

है बहुत सम्भव इसे पूँजूँ
मगर बाँचूँ नहीं,
फिर कसौटी पर स्वतः को
मैं कसूँ, जाँचू नहीं;

एक कंकड़, जल हिले थिर
भय भरे है ज्वार का।