भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शिरीष का सुरभि-गान / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
शिरीष का प्रसून
चित्रकार की तूलिका सा होता है,
कोमलता और सुरभि उस में अधिकाते हैं।
मेह में कनारी भी
पल दो पल झर जाय
तो दब जायगी मनोहर सुरभि यह
दो चार दिन धूप खा कर
कुड्मल नये नये उकसेंगे
फिर आकाश को निहारते हुए प्रसून।
फूलों के बाद ही शिरीष में
हरी हरी चिपटी बीज भरी फलियाँ
पूरे विस्तार से बिराजती हैं।
अपना जीवन जी कर
फलियाँ सूख जाती हैं
किंतु वृंत छोड़ नहीं देता उन्हें
आँधी और वर्षा ही इनको अलगाते हैं
रसिक जन प्रसून सुधि करते हैं,
सुरभि गान गाते हैं।
10.11.2002