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शिल्पी / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल

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पड़ता आलोक मध्यरात्रि का मुख पर
रहता आधा अपने में ही घिरा।

तुम हो दिशा हारा अब भी जानते नहीं
तारा कौन कहाँ मरा बचा कहाँ कौन।

वामन सम चलते ही कभी-कभी
कभी-कभी अग्रदूत बनकर वसन्त के
कभी-कभी लगते हो अपने ही बहुत बड़े प्रेत से।

रंग और ध्वनि की निरंजन वह श्वास
उड़ जाती कुछ तो कुछ रह जाती पड़ी यहीं
निज को हो जानते? जानते हो कितना?

तुम हो बस चित्र वही मीडिया
          बना देता जितना।

मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)