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शिशिर सोहानोॅ की लागतै / अनिल कुमार झा
Kavita Kosh से
पोर पोर में दरद छै ऐत्ते,
शिशिर सोहानोॅ की लागतै।
भोर उठै छी सिसकी सिहरी
चारो तरफ़ कुहासा देखौं
दूव घास पत्ती फूलोॅ पर
रात अघैली आशा देखौं
दूर दूर तक सुरूज न दिखलै, भोर विहानोॅ की लागतै
पोर पोर में दरद छै ऐŸोॅ शिशिर सोहानोॅ की लागतै।
दिन होलै जे दिनोॅ न लागै
कोकड़ैलोॅ छी की दिन-रात,
जानोॅ कैन्हें रूसलोॅ छै नै
बिना विधाता बनतै बात,
दूर पिया सें सजनी सोचै रूप रूहानोॅ की लागतै
पोर पोर में दरद छै ऐत्तेॅ शिशिर सोहानोॅ की लागतै।
मोॅन करै छै घुमै बुलै के
आग तापतें समय बितै छै,
आखिर कैन्हें हमरा लेली
भाग वाम छै आरोॅ सुतै छै,
बाती बुझलै जरी-जरी के लाग लगैने की लागतै
पोर पोर में दरद छै ऐत्तॅे शिशिर सोहानोॅ की लागतै।