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शुऊर / अशोक शाह

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मेरे माथे से बहते पसीने मत पोछो
जैसे पोछ लेते हो धरती की माँग का सिंदूर
मत छिनो मेरे हाथों के हुनर
पुरखों की रूहें पनाह पातीं इसमें
मनुष्य होनेे का यही है मेरा गुरूर

मेरे श्रम का करो मत उपहास
देकर मुफ्त की सौगात
मेरा गर्व है मेरी मजदूरी
उसी मेहनत से फूलती मेरी रोटी

तुम्हें मालूम हो या न हो
मैं नदी की प्यास बुझाता हूँ
जब भी पीता नदी का पानी
नदी मुझे भी पीती है

मेघ रहते बहुत प्यासे
मेरे द्वार बरस न जाते
आकुल अल्हड़-सी बहती हवा
छूकर मेरे तन दोनो ही
गदगद हो जाते

जब सूँघता एक पुष्प हूँ
फूल मुझे भी सूँघते
सूर्यांशु संग खिलते
मुझ पर रंग छिड़कते

मैं वृक्षों से मंत्रणा कर
बोता हूँ फ़सलें
नदियों से पूछता हूँ
कितना बचा है जीवित जल

यह धरती मेरी भी माँ
बनाया नहीं मुझे हिन्दू-मुसलमान
उसके आँचल में रहने का शुऊर
क्या तुम सिखाओगे ?
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