भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शुक्र मनाओ / शरद कोकास
Kavita Kosh से
वैदिक ऋचाएँ सुनने के आरोप में
मेरे पूर्वजों के कानों में
उँड़ेला हुआ पिघला गर्म सीसा
जला रहा है मेरी धमनियाँ
उनकी मर्मान्तक चीख़ें
हर रात उड़ा देती हैं मेरी नींद
गर्म सलाखों से दागी गयी
उनकी आँखों से टपकता लहू
यक-ब-यक
टपक पड़ता है मेरी आँखों से
जूठी पत्तलों के लिए
कुत्तों से लड़ते हुए
उनके शरीर पर पड़ी खरोंचें
मेरे बदन पर हैं
जो कुछ भी सहा गया
विरासत में मिला है मुझे
तुम्हें भी मिला है विरासत में
वही सब कुछ
रुको
अट्हास से आसमान मत गुँजाओ
समीकरण बदल रहे हैं अब
गनीमत है उलट नहीं रहे
शुक्र मनाओ!