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शुन्यता / मनीष मूंदड़ा

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कभी आपके साथ ऐसा हुआ हैं?
जब आपके अपने शब्द कहीं लुप्त हो जाते हैं
मन, आँखे, लेखनी, सब विचार विहीन हो जाते हैं
आप अकेले, अलग खड़े रह जाते हैं

ऐसी ही शून्यता से मैं घिरा हूँ...
शब्दों की गैर मोजूदगी से डरा हूँ
काल पड़ा हैं मन पे, आँखों में
बाँदी लगती हैं रूह, मूक सी
बेबस, विवश महसूस करता हूँ ख़ुद को
दर्द, संताप सब दूर खड़े हैं...
शायद वह भी शब्दों से जा जुड़ें हैं

फिर से दर्द को मनाना होगा
ख़ुशियों को दरकिनार कर
पास बुला उसे समझाना होगा
तब शायद शब्द भी वापस मन को आएँगे...
विचारों का सर्जन होगा
डर, दर्द, आँसू, व्यथा, संकोच, अधूरे सपने
ये सब ज़रूरी हैं...
जीने के लिए सिफऱ् ख़ुशियाँ हो तो जि़न्दगी अधूरी हैं।