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शून्य / सुनीता जैन

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तुम्हारा मेरा क्या सम्बन्ध है
मुझे भूल जाना चाहिए था माना,
तुमको तो याद है-

वह गढ़ा गया था तुम्हारे द्वारा
उन दिनों
जब सुबह कहीं पहली चिड़िया के गाने से भी पहले
तुम चाहते थे मैं उठूँ
और देखूँ कि कब से सम्मुख हो तुम
इतनी सारी ऋचा लिये

वह गढ़ा गया था जब
तुम्हारे भीतर के आशीर्वाद
इतना-इतना बरसे
कि मेरे धू-धू करते विषाद
शान्त हो गये सारे

वह गढ़ा गया था उस दिन, तुमने जब
श्री रंग धामेश्वरी के द्वार
मेरे झुके सिर पर हाथ रख
माँ की स्तुति की, स्वर को मिला
स्वर से।

मैंने वह सब सच माना
और पूजा में मिली हल्दी की गाँठ-सा
सावधानी से माथा छुआ, पल्ले में बाँध लिया
अपने मन में ठान लिया
कि सुबह उठते ही
आँखें तुम्हें देख निर्मल होंगी
कान सुनेंगे स्वस्ति वाक् तुम्हारे,
पैर उठेंगे जब
मन्दिर के सोपान चढ़ेंगे
हाथों में कुमकुम रंजित पुष्प
तुम्हारे और मेरे-संग-संग

अवलोक्य माम् अकिंचनानाम्
प्रथमं प्रात्रम् अकृत्रिमं दयायाः
प्रथमं पात्रमं् अकृत्रिमं दयायाः
कहेंगे
पर आज यह शून्य-अब मेरी
सीमित शब्दावली में
कोई अन्य शब्द भी तो नहीं
जो व्यक्त कर सके कि
तुम्हारे और मेरे बीच यदि शून्य नहीं
तो क्या है-

यह शून्य मुझसे कह रहा है
कि वह सब यदि मुझे भूला नहीं
तो भूल जाना चाहिए अवश्य-
एकदम
अभी,
आज ही!