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शून्य से ज़िदगी शुरु / शीला तिवारी

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एक कहानी जिसके हर शब्द तेज़ाब में डूबे
बाहर निकलने के पहले फिर डूब जाता पीड़ा व दर्द में,
जिस्म से ज्यादा आत्मा पर फफोले
सोचो, तेज़ाब मेरी ज़िन्दगी की कहानी लिख गई
बिल्कुल क्रूर और निर्मम
जहाँ मेरी कराह, चित्कार सुनोगे तेज़ाब के जलन से
मानो लाखों सूरज ने अपने धधकती ज्वाला में हमें नहला दिया हो
आत्मा जलन में सुख गई हो
लगा हजारों टन बारूद से भरा तन गोले की तरह फटने लगा हो,
अनगिनत तीलियाँ मेरे सीने पर, हाथ में, चेहरे पर जला दी गई।
पीड़ा की मेरी चित्कार से भूमि भी भयभीत, भाव विहल ,
जमीन पर लोटती, चिल्लाती, तड़पती
लग रहा था, मुझे कोई बचा ले
कोई आगे नहीं आया, भीड़ दर्शक थी
फट रहे थे चेहरे से मांस के लोथड़े
आँखो में अंगारे सी जलन से, मैं उबली जा रही थी
किसी तरह अस्पताल पहुँचाई गई
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था
सर्जरी पर सर्जरी
कष्ट का कोई अंत न था
मेरे बापू अपनी बिटिया के लिए घर बेच दिया
मेरी अम्मा जिंदा लाश बन चुकी थी
मेरे साथ मेरा पूरा परिवार तबाही में जी रहा था।
ओ अमानवीय कृत्य करने वाले प्रतिशोधी
देखो मुझे, शायद तुझे देखना चाहिए
आओ ना, तुझे मैं 'हाँ' कहती हूँ अब
अरे बुज़दिल, देख मेरे परिवार का हाल
अचानक सब कुछ कैसे बदल गया
मैंने उसके एकतरफा प्यार को नकारा ही तो था बस
और इतनी बेरहम सजा
उसके हाथों में बोतल देख, मैं न समझ पाई
मेरी तक़दीर का हिसाब तेज़ाब से लेगा
मेरा मन कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं
न यह जीवन, न कुरूपता, न अंधकार
सब कुछ बदल चुका
जिस्म, चेहरा, आवाज, दिमाग, आत्मा
तेज़ाब से ज़िदगी का हर लम्हा,
हर पल कैसे पीड़ा में कातर कराह करती
आओ मुझे देखो,
ऐसी सज़ा मुझे मिली जहाँ जुर्म किसी और का,
सज़ा किसी और को।
जहाँ आत्मा-जिस्म दोनों घायल, अचानक सब कुछ खत्म
ज़िन्दगी कुरूपता में ढल गई
ज़िन्दगी बिना मक़सद के, तीव्र अम्लीय गंध के घेरे में।
अंधेरा-ही-अंधेरा
डूब चुका उम्मीद का सूरज
अपने हिस्से की रोशनी बंद कर मेरी ज़िदगी ने अंधेरे की चादर ओढ़ ली।
शब्दों ने आत्महत्या को सोची पर कहानी बहादुर हो चुकी
मरने से इन्कार किया,
किसी के जुर्म की सजा अपने ज़िदगी को क्यों दें।
फिर ज़िन्दगी शून्य से शुरु
दुख में सुख की खोज
ज़िन्दगी ने सुखन को छुआ
सपनों की उड़ान को पंख मिल गयी
खुशियों की खिड़कियाँ खुल गयी,
कदम निकल पड़े
अपने जैसे तेज़ाब पीड़ितों की मदद को
उसके दर्द को अपने में समेट लेने को।
जीने की वज़ह मिल गई और शब्द नाचने, गाने लगे
एक तमाचा अपराधी को, दूसरा समाज को
अब मैंने रोशनी के सारी खिड़कियाँ खोल दिए।