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शेष दीप / विमल राजस्थानी

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काल ने मार - मार कर फूँक बुझाये एक - एक कर दीप
पंक्ति में एक रह गया शेष कि जो पल - पल- तिल- तिल जल रहा
स्वर्ण का हीरे - मोती जड़ा
कभी था मेरा दीपाधार
छीन कर अपनों ने ही उसे -
दे दिया मिट्टी का आधार
गोद में धरती की मैं पड़ा
बहुत तूफानों से हूँ लड़ा
दिवा-निशि फिर भी जलता रहा
अकांपित लौ ने सब कुछ सहा
किन्तु, चुक रहा प्राण- रस तेल, खत्म होने को है यह खेल
छू रहा पश्चिम दिशि का छोर, गगन का ज्योति ढल रहा

लिये हाथों में मेरा हाथ
हम सफर कई चले थे साथ
कुछ मुड़े राज- मार्ग की ओर
चुन लिया बहुतों ने फुटपाथ
शेष लौ आगे बढ़ती रही
भाग्य के आखर पढ़ती रही
नित नये सपने गढ़ती रही
ज्योति - शिखरों पर चढ़ती रही
 
फूँक मारता रहा वातास, लुटाता रहा अमंद प्रकाश
किन्तु अब लौ धीमी हो चली
ज्योति-छवि तेज - पुंज खो चली
मुझे अपनी ही धूम्र -लकीर, फकीरी का ही संबल रहा
उधर सूरज मेरी लौ लूट प्रंतीची के मुँह पर मल रहा
यह कहर यू ही नहीं बरपा-
हुआ है
जो सताये गये उनकी-
बददुआ है।