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शोकसभा में एक हँसी / आशुतोष दुबे
Kavita Kosh से
कण्ठ के गुलेल से
वह जो छूटा हुआ एक शब्द है
कँटीले तारो के पार जाता है
मर्मस्थल से निकली
वह जो एक यातना-दीप्त चीख़ है
अनन्त में लिखती है एक मृत्यु-लेख
गाढ़े अन्धेरे में देहों के बीच
वह जो चुप्पी है निथरती हुई
आत्माओं में रिसती है
लगातार गूँजती हुई
वह जो शोकसभा में एक हँसी है दुर्निवार
आदिम सन्देह से भर देती है दिशाओं को
सब एक-दूसरे को देखते हैं
और एक-दूसरे से बचते हैं
और जो नहीं रहा
इस तरह रह जाता है
सबके बीच