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शोर में / नीरज दइया
Kavita Kosh से
यहाँ वर्षों बाद
वापस लौटा हूँ
क्यों चाहता हूँ देखना -
वह घर-गली-आंगन
अब क्या लेना-देना
उस बीते वक़्त के निशानों से ।
सब कुछ बदल गया
जब बदलता है वक़्त
तब नहीं करता
किसी मन की परवाह ।
अच्छा है मित्र
तू पुष्ट कर रहा है कविता को
इस शोर में
तुम्हारे जैसों के दम पर ही
बुद्धुओं के सींग-पूँछ
अखंड हैं ।
लोग कविता को
बुद्धुओं के सींग-पूँछ समझते हैं !
अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा