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शोर है क़द-काठी का, पैमाइशों की बात हो / गौतम राजरिशी

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शोर है क़द-काठी का, पैमाइशों की बात हो
रौशनी के मेले में बस आतिशों की बात हो

हौसला है, पंख हैं, छूने को है आकाश भी
अब न परवाज़ों पे कोई बंदिशों की बात हो

मत करो बातें कि दरिया ने डुबो दी बस्तियाँ
साहिलों ने की है जो उन साजिशों की बात हो

यूँ तो निकले हैं बहुत अरमान अपने भी मगर
जो हैं बाकी उन सुलगती ख़्वाहिशों की बात हो

धूप के तेवर तो बढ़ते जा रहे हैं दिन-ब-दिन
अब रहम धरती पे हो, अब बारिशों की बात हो

क़ीमतें छूने लगीं ऊँचाइयाँ आकाश की
दौर ऐसा है कि क्या फ़रमाइशों की बात हो

‘यूं ही चलता है’ ये कह कर कब तलक सहते रहें
कुछ नये रस्ते, नयी कुछ कोशिशों की बात हो





(कथा-क्रम अक्टूबर-दिसम्बर 2012, समावर्तन मई 2012)