भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

श्रान्ति-गीत / प्रतिपदा / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साधन कठोर भैरवक घोर
स्वरहिक रहलहुँ अभ्यासी।
एकान्त प्रान्त कण्टक नितान्त
बनलहुँ युगसँ बनवासी।।
आकुल-व्याकुल अछि कण्ठ आइ आशावरीक रचि गीवि।
विभावरी सरसीमे कमलक जगबओ प्रातक प्रीति।।
--- ---
मार्तण्ड तप्त पथ किरण-शप्त
ई चरण प्रगतिहिक नामी।
पादप छाया न तकर माया
छन भरिहुक नहि विश्रामी।।
आकल तन, मनमे जागल अछि आइ विरामक छन्द।
छायामे छन बैसि पथिक सुस्ताथि मेटि उर-द्वन्द्व।।
पर्वतक शिखर काराक निगड़
हम तोड़ि चलल छी निर्झर।
नहि कतहु रुद्ध गति हमर शुद्ध
तट छोड़ि सिन्धु दिस सत्वर।।
हम चलल आइ छी स्वयं उपटि कय करय उर्वरा भूमि।
गाबि सकथि अगहनक गीत जेहिसँ गृहस्थ-गण झूमि।।
--- ---
ई लोल लहरि जल-ओघ घहरि
नहि ताकल तट कत दूर।
मूलक खोजहिँ कुदलहुँ ओजहिँ
यद्यपि अनन्त जल - पूर।।
भुज थाकि चलल, दृग ताकि रहल आश्रय तरणीक अधीर।
चढ़ि-चढ़ि जेहिपर पार करथि जग पहुँचथि शान्तिक तीर।।