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श्रीवृन्दावन, वेदी, योगपीठ / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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 श्रीवृन्दावन, वेदी, योगपीठ और अष्टस्न्दल कमल
 सुमन-समूह, मनोहर सौरभ मधु प्रवाह सुषमा-संयुक्त।
 नव-पल्लव-विनम्र सुन्दर वृक्षावलिकी शोभासे युक्त॥
 नव-प्रड्डुल्ल मजरी, ललित वल्लरियोंसे आवृत, द्युतिमान।
 परम रय, शिव सुन्दर श्रीबृन्दावनका यों करिये ध्यान॥
 उसमें सदा कर रहे चचल चचरीक मधुमय गुजार।
 बढ़ी और भी, विकसित सुमनोंका मधु पीनेको झनकार॥
 कोकिल-शुक-सारिका आदि खग नित्य कर रहे सुमधुर गान।
 मा मयूर नृत्यरत, यों श्रीबृन्दावनका करिये ध्यान॥
 यमुनाकी चचल लहरोंके जल-कणसे शीतल सुख-धाम।
 ड्डुल्ल कमल-केसर-परागसे रजित धूसर वायु ललाम॥
 प्रेममयी ब्रज-सुन्दरियोंके चचल करता चारु वसन।
 नित्य-निरन्तर करता रहता श्रीबृन्दावनका सेवन॥

कल्पवृक्ष

 उस अरण्यमें सर्वकामप्रद एक कल्पतरु शोभाधाम।
 नव पल्लव प्रवाल-सम अरुणिम, पत्र नीलमणि-सदृश ललाम॥
 कलिका मुक्ता, प्रभा, पुज-सी पद्मराग-से फल सुमहान।
 सब ऋतु‌एँ सेवा करतीं नित परम धन्य अपनेको मान॥
 सुधा-बिन्दु-वर्षी उस पादपके नीचे वेदी सुन्दर।
 स्वर्णमयी, उद्भासित जैसे दिनकर उदित मेरु-गिरिपर॥
 मणि-निर्मित जगमग अति प्राङङ्गण, पुष्प-परागोंसे उज्ज्वल।
 छहों ऊर्मियोंसे* विरहित वह वेदी अतिशय पुण्यस्थल॥
 वेदीके मणिमय आँगनपर योगपीठ है एक महान।
 अष्टस्न्दलोंके अरुण कमलका उसपर करिये सुन्दर ध्यान॥

भगवान्‌ नन्दनन्दन

उसके मध्य विराजित सस्मित नन्द-तनय श्रीहरि सानन्द।
 दीप्तिमान निज दिव्य प्रभासे सविता-सम जो करुणा-कंद॥
 श्रीविग्रहका वर्ण नील-श्यामल, उज्ज्वल आभासे युक्त।
 कमल-नीलमणि-मेघ-सदृश कोमल, चिक्कण, रससे संयुक्त॥
 काले घुँघराले अति चिकने घने सुशोभित केश-कलाप।
 मुकुट मयूर-पिच्छका मनहर मस्तकपर हरता हृााप॥
 मधुकर-सेवित कल्पद्रुमके कुसुमोंका विचित्र श्‌ृङङ्गार।
 नव-कमलोंके कर्णड्डूल, जिनपर भौंरे करते गुजार॥
 चमक रहा सुविशाल भालपर गोरोचन का तिलक ललाम।
 चिा-विाहर धनुषाकार भ्रुकुटियाँ अतिशय शोभाधाम॥
 मुख-मण्डलकी कान्ति शरद-शशि-सदृश पूर्ण, अकलङङ्क, अतोल।
 नेत्र कमल-दल-से विशाल, निर्मल दर्पण-से गोल कपोल॥
 दीप्त रत्नमय मकराकृति कुण्डलकी किरणोंसे सविशेष।
 कीर-चचु-सम सुन्दर नासा हरती जन-मनका सब क?ेश॥
 अरुण अधर बन्धूक सुमन-से चन्द्र-कुन्द-जैसी मुसकान।
 समुख दिशा प्रकाशित करती दिव्य छटासे अति द्युतिमान॥
 बनके कोमल पल्लव-पुष्पोंसे निर्मित निर्मल नव-हार।
 मनहर शङ्ख-सदृश ग्रीवाकी शोभा बढ़ा रहे सुख-सार॥
कंधोंपर घुटनोंतक लटका पारिजात-पुष्पोंका हार।
 मा मधुप मँडराते उसपर करते मधुर-मधुर गुजार॥
 हार-रूप नक्षत्रोंसे शोभित वक्षःस्थल पीन विशाल।
 कौस्तुभमणिरूपी भास्कर है भासमान उसमें सब काल॥
 शुचि श्रीवत्स-चिह्न वक्षःस्थलपर, शुभ उन्नत सिंह-स्कन्ध।
 सुन्दर श्रीविग्रहसे निस्सृत विस्तृत विमल मनोहर गन्ध॥
 भुजा गोल, घुटनोंतक लंबी, नाभि गभीर चारु-बिस्तार।
 उदर उदार, त्रिवलि, रोमावलि मधुप-पंक्ति-सम शोभा-सार॥
 दिव्य रत्न-मणि-निर्मित भूषण श्रीविग्रहपर रहे विराज।
 अङङ्गद, हार, अँगूठी, कङङ्कण, कटि करधनी मनोरम साज॥
 दिव्य अङङ्गरागोंसे रजित अङङ्ग सकल माधुर्य-निवास।
 विद्युद्वर्ण पीत अबरसे आवृत रय नितबावास॥
 जङ्घा-घुटने उभय मनोहर, पिंडली गोलाकार सुठार।
 परम कान्तिमय उन्नत श्रीपादाग्रभाग सुषमा-‌आगार॥
 नख-ज्योति निर्मल दर्पण-सम, अरुण-वर्ण माणि?य-समान।
 अङङ्गुलि-दलसे परम सुशोभित उभय चरण-पङङ्कज सुख-खान॥
 अङङ्कुश-चक्र-शङ्ख-यव-पङङ्कज-वज्र-ध्वजा चिह्नोंसे युक्त।
 अरुण हथेली, तलवे सुन्दर करते जनको बन्धन-मुक्त॥
 शुचि लावण्य-सार-समुदाय-विनिर्मित सकल मधुर श्री‌अङङ्ग।
 अनुपम रूप-राशि करती नित अगणित मारोंका मद-भङङ्ग॥
 मुख-सरोजसे मुरली मधुर बजाते गाते नन्द-किशोर।
 दिव्य रागकी सृष्टिस्न् रहे कर आनन्दार्णव मुनि-मन-चोर॥
 मुरली-ध्वनिसे आकर्षित हो वनका जीव-जन्तु प्रत्येक।
 निरख रहा श्रीमुखको अपलक बार-बार भुवि मस्तक टेक॥

गोप-बालक

हरि-सम-वय-विलास-गुण-भूषण-शील-स्वभाव-वेषधर गोप।
 चचल, बाहु नचानेमें अति निपुण, बढ़ाते अनुपम ओप॥
 घेरे खड़े श्यामको करते मन्द-मध्य-न्नँचे स्वर गान।

छेड़ रहे वंशी-वीणाकी उसके साथ मधुरतम तान॥
 नन्हे-नन्हे शिशु विमुग्ध सब हरिका सुन्दर रूप निहार।
 कटि-रशनाकी क्षुद्र घंटियाँ हैं कर रहीं मधुर झनकार॥
 बघनखके आभूषण पहने घूम रहे सब चारों ओर।
 मीठी अस्ड्डुट वाणीसे हैं भोले शिशु लेते चित-चोर॥

गोपीजन

गोपीजनसे घिरे श्यामका अब कीजिये मधुरतम ध्यान।
 अति मनहर ब्रज-सुन्दरियोंकी ोणीसे सेवित भगवान॥
 स्थूल नितबोंके बोझेसे जो हो रहीं थकित, अति श्रान्त।
 मन्थर गतिसे चलतीं वे गुरु वक्षःस्थलसे भाराक्रान्त॥
 कबरी गुँथी कर रही उनके रय नितब-देशका स्पर्श।
 रोम-राजि त्रिवलीयुत वक्षःस्थलसे सटी पा रही हर्ष॥
 देह-लता रोमाच-‌अलंकृत पाकर वेणु-सुधा रसराज।
 मानो प्रेमरूप पादप हो गया पल्लवित, मुकुलित आज॥
 परम मनोहर मोहनकी अति मधुर मोहिनी मृदु मुसकान।
 चन्द्रालोक-सदृश करती अनुरागाबुधिका वर्धित मान॥
 मानो उसकी तरल तरंगोंके कणरूपी शोभा-सार।
 गोप-रमणियोंके अङङ्गोंमें प्रकट चारु श्रमबिन्दु अपार॥
 परम मनोहर भ्रूचापोंसे वनमाली वर्षा करते।
 तीक्ष्ण प्रेम-बाणोंकी, उनसे तन-मनकी सुध-बुध हरते॥
 विदलित मर्मस्थल समस्त हैं, हु‌ए जर्जरित सारे अङङ्ग।
 मानो प्रेम-वेदना ड्डैली अति दुस्सह, बदले सब रंग॥
 परम मनोहर वेष, रूप-सुषमामृतका करनेको पान।
 लोलुप रहतीं व्रज-बाला‌एँ नित्य-निरन्तर तज भय-मान॥
 प्रणयरूप पय-राशि-प्रवाहिणि मानो वे सरिता अनुपम।
 अलस-विलोल-विलोचन उनके उसमें शोभित सरसिज-सम॥

कबरी शिथिल हु‌ई सबकी, तब गिरे प्रड्डुल्ल कुसुम-सभार।
 मधु-लोलुप मधुकर मँडऱाते, सेवा करते कर गुजार॥
 व्रज-बाला‌ओंकी मृदु वाणी स्खलित हो रही है उस काल।
 छाया मद प्रेमामृत-मधुका, रही न कुछ भी सार-सँभार॥
 चीर-वसन नीवीसे विश्लथ, उसका प्रान्तभाग सुन्दर।
 करता अर्चि-नितब प्रकाशित, लोल काचि उल्लसित अमर॥
 खसे जा रहे ललित पदाबुजसे मणिमय नूपुर भूपर।
 टूट-टूटकर बिखर रहे हैं, ड्डैल रहे सब इधर-‌उधर॥
 निकल रहा मुखसे सी-सी स्वर, किपत अधर सुपल्लव-लाल।
 श्रवणोंमें मणि-कुण्डल शोभित, छायी सुधा-रश्मि सब काल॥
 अलसाये लोचन दोनों अति शोभित नील-सरोरुह-सम।
 सुन्दर पक्ष्म-विभूषित मुकुलाकार दीर्घ अतिशय अनुपम॥
 श्वास-समीरण शुचि सुगन्धसे अधर-सुपल्लव हैं अलान।
 अरुण-वर्ण धन, मोहनके वे नित नूतन आनन्द-निधान॥
 प्रियतम-प्रिय पूजोपहारसे उनके कर-पङङ्कज कोमल।
 सदा सुशोभित रहते, ऐसा अतुलित वह गोपी-मण्डल॥
 अपने असित विशाल विलोल लोचनोंको ले व्रज-बाला।
 उन्हें बनाकर नील नीरजोंकी मानो सुन्दर माला॥
 पूज रहीं हरिके सब अङङ्गोंको, यों सेवा करतीं नित्य।
 छूट गये उनसे जगके सब विषय दुःखमय और अनित्य॥
 नानाविध विलासके आश्रय हैं प्रेमास्पद श्रीभगवान।
 परम प्रेयसी व्रज-सुन्दरियोंके लोचन हैं मधुप-समान॥
 प्रणय-सुधारस-पूर्ण मनोमोहक मधुकर वे चारों ओर।
 उड़-‌उडक़र मनहर मुख-पङङ्कज-विगलित रस मधु-पान-विभोर॥
 आस्वादन करते, पीते रहते, पाते आनन्द अपार।
 मानो नेत्ररूप मधुपोंकी माला हरिने की स्वीकार॥
 परम प्रेयसी व्रज-सुन्दरियाँ, परम प्रेम-‌आश्रय भगवान।
 निर्मल कामरहित मनसे यह करिये अतिशय पावन ध्यान॥

गाय, बछड़े और साँड़

अब उन भाग्यवती गायोंका, गोकुलका करिये शुभ ध्यान।
 जिनकी अपने कर-कमलोंसे सेवा करते हैं भगवान॥
 थकीं थनोंके विपुल भारसे मन्थरगतिसे जो चलतीं।
 बचे तृणाङङ्कुर दाँतोंमें न चबातीं, नहीं जरा हिलतीं॥
 पूँछोंको लटकाये देख रहीं श्रीहरिके मुखकी ओर।
 अपलक नेत्रोंसे घेरे श्रीहरिको वे आनन्द-विभोर॥
 छोटे-छोटे बछड़े भी हैं घेरे श्रीहरिको सानन्द।
 मुरलीसे अति मीठे स्वरमें गान कर रहे हरि स्वच्छन्द॥
 खड़े किये कानोंसे सुनते हैं वे परम मधुर वह गान।
 भरा दूध मुँहमें, पर उसको वे हैं नहीं रहे कर पान॥
 ड्डेनयुक्त वह दूध बह रहा उनके मुखसे अपने-‌आप।
 बड़े मनोहर दीख रहे हैं, हरते हैं मनका संताप॥
 अतिशय चिकनी देह सुगन्धित-युत वह गो वत्सोंका दल।
 सुखदायक हो रहा सुशोभित जिनका भारी गलकबल॥
 माधवके सब ओर उठाये पूँछ, नये श्‌ृङङ्गोंसे युक्त।
 करते हैं प्रहार आपसमें कोमल मस्तकपर भययुक्त॥
 लडऩेको वे भूमि खोदते नरम खुरोंसे बारंबार।
 विविध भाँतिके खेल कर रहे पुनः-पुनः करते हुंकार॥
 जिनकी अति दारुण दहाड़से क्षुध दिशा‌एँ हो जातीं।
 बृहत्‌्‌ ककुदसे भारी जिनकी चलते देह रगड़ खातीं॥
 दोनों कान उठाये सुनते मुरलीका रव साँड़ विशाल।
 महाभाग वे पशु, जो हरिका सङङ्ग पा रहे हैं सब काल॥

देवता, मुनि, योगी

गोपी-गोप और पशु‌ओंके घेरेसे बाहर मतिमान।
 सुर-गण विधि-हर-सुरपति आदिक करते ललित छन्द यश-गान॥

वेदायास-परायण मुनिगण सुदृढ़ धर्मका कर अभिलाष।
 घेरेसे बाहर दक्षिणमें स्थित, विषयोंसे सदा उदास॥
 पृष्ठस्न्भागकी ओर खड़े सनकादि महामुनि योगीराज।
 अन्य मुमुक्षु समाधि-परायण जिनके, साधनके सब साज॥

देवर्षि नारद

तदनन्तर आकाशस्थित देवर्षिवर्यका करिये ध्यान।
 ब्रह्मापुत्र नारद जिनका वपु गौर सुधाकर-शङ्ख-समान॥
 सकल आगमोंके जाता, विद्युत्‌्‌-सम पीत जटाधारी।
 हरि-चरणाबुजमें निर्मल रति जिनकी हैं अतिशय प्यारी॥
 सर्वसङङ्गका परित्याग कर जो हरिका करते गुण-गान।
 नित्य-निरन्तर श्रुतियुत नाना स्वरसे स्तुति करते मतिमान॥
 विविध ग्रामके ललित मूर्छनागणको जो अभिव्यजित कर।
 नित्य प्रसन्न कर रहे हरिको प्रेम-भक्ति-मणिके आकर॥

ध्यानका फल

इस प्रकार जो काम-राग-वर्जित निर्मल-मति परम सुजान।
 नन्द-तनय श्रीकृष्णचन्द्रका प्रेमसहित करते हैं ध्यान॥
 उनपर सदा तुष्टस्न् रहते हरि, बरसाते हैं कृपा अपार।
 देते प्रेमदान अति दुर्लभ, जो समस्त सारोंका सार॥