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षष्ठ उमंग / रसरंग / ग्वाल

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शृंगार रस भेद (दोहा)

रस सिँगार के भेद द्वै, इक संजोग सिँगार।
बिप्रलंभ सिंगार दुअ, यही वियोग सिँगार॥1॥


संयोगशृंगार लक्षण

प्यारी पिय हित चित मिलैं, करैं अभीष्ट जु सिद्ध।
सो संजोग सिंगार है, बरन सु कवि जो वृद्ध॥2॥

यथा (कवित्त)

भौंहन तें कछुक उचौंही पटियाँ हैं परी,
रुचिर रुचौंही दिये माँग रंग राती तें।
नैन अनी जोरे गोरे कोमल कपोल गोल,
मोतिन की बढ़िया हू बेसर सुहाती तें।
‘ग्वाल’ कवि मैं तो रति रीति कै उलटि पर्यो,
राची विपरीत प्रानप्यारी अलसाती तें।
उचकि-उचकि रहि-रहि उचकत फेर,
सकुच-सकुच कुच मेल लगै छाती तें॥3॥

हाववर्णन (दोहा)

सो सिँगार में हाव दस, लिखत बहुत कवि राय।
तिनके लक्षन लक्ष सब, नाम सहित बरनाय॥4॥
स्वभावज चेष्टा जु हैं, तिय की, बीच सिँगार।
ताकों हाव कहैं सुकवि, तिनके कहौं प्रकार॥5॥
लीला बरनि बिलास फिर, बिच्छिति बिभ्रम भाखि।
किलकिंचित मोट्टाइत सु, फेर कुट्टमित राखि॥6॥
कहि बिब्बोक सुललित फिर, बिहृत बहुरि बरनंत।
लिखत चले आये सबै, याही क्रम बुधिवंत॥7॥

लीला हाव लक्षण

पिय सिँगार तिय धारई, या पिय बनै जु तीय।
या छबि बदलैं परसपर, लीला हाव कहीय॥8॥

यथा (कवित्त)

सखी तू सयानी मनमानी मेरे यातें कहौं,
पूरे तप पाई मैं तो पतिनी सुनीत री।
कहा-कहा चातुरी बखानौं, पै बखानौं एक,
मोकों तो बनाये नारि, आप बनै मीत री।
‘ग्वाल’ कवि भूषनादि बदलि-बदलि साजै,
इंगित अनोखी करै, भरी रसरीति री।
करै बिपरीत तब सुरति प्रतीत होत,
सुरति करै तो जानी जाति विपरीत री॥9॥

विलास लक्षण (दोहा)

नैन बैन गति आदि दै, इंगित करै कछूक।
चमतकार सरसावई, हाव बिलास अचूक॥10॥

यथा (कवित्त)

और हू तो सुंदर हैं, चतुरी हैं ब्रजबाल,
ऐ पै ख्याल तेरो देख्यो सबही तें न्यारो सो।
चलन अनोखी जोर जादू की सी पोखी मनो,
सोखी करै नैन ऐन मैन-बान मारो सो।
‘ग्वाल’ कवि होंस में हरत हियरे को हाल,
अंधकार जाल हू में फैलत उजारो सो।
सुनि-सुनि तेरे बैन, सुधा तें भरे बिसाल,
रसिकरसाल लाल रहै मतवारो सो॥11॥

विच्छित्ति लक्षण (दोहा)

कछुक सिँगारिहिँ ते जहाँ, सुखमा बहु सरसाय।
बिच्छिति हाव बखानहीं, ताकों कवि समुदाय॥12॥

यथा (कवित्त)

सोरहों सिँगारन तें सुंदरी सजी सी रहै,
तौहू बैंन होय सरि, तेरे रूप-फंद के।
तेरो यह एकही सिँगार सों सिँगार सोहै,
सोहैं अति मोद भरे जौहर पसंद के।
‘ग्वाल’ कवि हीरे की कनीन तें जटित नथ,
अजब खुले हैं तामें मुकता गयंद के।
चंद के चहूँधा परिवेष पर्यो देखत हैं,
नयो तें दिखायो परिवेष बीच चंद के॥13॥
बिन कजरा के कजरारे रतनारे रहैं,
अति अनियारे दृग रहें छबि धरिकै।
गोरी गरबीली गजगौनी के सु हाथन में,
बुँदियाँ लगी हैं लाल मेंहदी की भरिकै।
‘ग्वाल’ कवि कहै ताहि ताके तक बाँधे लाल,
हाल भयो औरै गई सुधि हू बिसरि कै।
मानहु चकोर चमकीली चिनगारिन कों,
चाहत चुग्यो ही अबै चोंप चित्त करिकै॥14॥

विभ्रम लक्षण (दोहा)

किहूँ हेत भ्रम पाइकै, धारै कछु बिपरीत।
सो वह विभ्रम हाव है, बरनत बिदुष सुनीत॥15॥

यथा (कवित्त)

कंत की अवाई सों भुलाई सी भई क्यों भोरी,
छाई खुसी ऐसी, अब ही तें बैस वारी की।
देखेंगी जिठानी-सास-ननद सयानी यातें,
तैनें तो निसानी करी, उपहास भारी की।
‘ग्वाल’ कवि ऐरी मृगसावक दृगन वारी,
जावक की बैंदी तें लगाई री तयारी की।
ऐसी जेबदार जततारी धारी उलटी तें,
ऊपर संजाफ, तरै चमक किनारी की॥16॥

किलकिंचित लक्षण (दोहा)

गर्व अमर्ष’रु हर्ष भय, अभिलाषादिक संग।
बहुत भाव किहि हेतु भव, सो किलकिंचित अंग॥17॥

यथा (कवित्त)

धवल अटारी वारी, गोप की सुता के लिये,
गूँधि लै गई ही आज, मालती की माल मैं।
राजै पास जननी औ’ बहिन सहेली सब,
लागी अलबेली चारु चौपर के ख्याल में।
‘ग्वाल’ कवि ताही समै आय गयो ताको कंत,
सुनतें ही होय आये, भाव बहु बाल में।
फूली-सी, लजी-सी, चपली-सी, उर भरी चाह,
सफरी-सी तरफरी, पीहर के जाल में॥18॥

मोट्टायित लक्षण (दोहा)

प्रीतम तें इतराय कै, तिय न सुनै प्रिय बात।
पुनि वाही कों चाह ही, सो मोट्टाइत हाव॥19॥

यथा (कवित्त)

दीरघ दृगन वारी, नारी की नई सी बात,
मन हुलसात रहै, जाको इतरैबे कों।
काल्हि रात पहर बजे पै, वाके प्रीतम ने,
द्वैक बार कही तासों, सेज पर ऐबे कों।
‘ग्वाल’ कवि वाने असुनी-सी करी, बहराय,
घात-सी बचाय करि, लागी कछु गैबे कों।
फिर अँगरान लागी, जुरि जमुहानि लागी,
मुरि मुसकानि लागी, पान लागी दैबे कों॥20॥

कुट्टमित लक्षण (दोहा)

करै कपट की चेष्टा, दुख की, सुख की बार।
हाव कुट्टमित होत सो, कविजन किय निरधार॥21॥

यथा (कवित्त)

सुबरन बेली-सी, सहेली को तजै न संग,
आई गौनहाई री, नवेली दिन दस की।
काल्हि फिर रात कों, लगाय घात नंदलाल,
लै ही गये खैंचि ताहि, बाँह गहि कसकी।
‘ग्वाल’ कवि मैं हूँ जाय, कौरे तें सुनत रही,
केलि समै बाल ऐसी, छैल कस मसकी।
बीती अधरतियाँ, न जात परि छतियाँ औ’-
ऐसे समैं बतियाँ, करत तुम रस की॥22॥

बिब्बोक लक्षण (दोहा)

निजासक्त पिय कों समुझि, गरबित ह्वैकै बाल।
करै अनादर प्रीत जुत, सो बिब्बोक रसाल॥23॥

यथा (कवित्त)

गूँधि-गूँधि बेनी, माँग देनी भरि ईंगुर सों,
लीनी मोहि नित ही सिँगार करि भाउ सो।
अपनी तो लाज सब खोई, सो तो खोई भला,
मेरो करि दीयो, निरलाज को सुभाउ सों।
‘ग्वाल’ कवि मेरे ही समीप रहौ आठौं जाम,
धाम में सदा मगर जन पसराउ सों।
जाउ-जाउ दिन तो अथाइ बैठो ब्रजराउ,
चहूँधा चबाउ को तुम्हें तो पर्यो चाउ सो॥24॥

ललित लक्षण (दोहा)

अंग-अंग में सों दरज, जा-जा बिधि तें होय।
ता ता बिधि कों तिय करै, ललित हाव सो जोय॥25॥

यथा (कवित्त)

कैसी रेख मिसी की, जमाई साफ, जुदी-जुदी,
तापै फिर बीरी बिरचाई छबि केत है।
गजमुकतान के अजब साज्यो गुलीबिंद,
तैसो चंद्रहास चारु चमक निकेत है।
‘ग्वाल’ कवि कंचुकि, कसनि कुच उचकनि,
चीर की चुननि चिलकनि चित लेत है।
औरन के तन की सिँगार सोभ सरसावै,
तू सिँगार सोभा कों सरस करि देत है॥26॥

विहृत लक्षण (दोहा)

बाधक कछु बलिष्ठ ह्वै, इष्ट पुजन नहिँ देइ।
बिहृत हाव तासों कहत, कविजन जानत भेइ॥27॥

यथा (कवित्त)

सब तें निराली गई, जात कों उताली करि,
मूरति बिसाली, करै दरसन काली के।
चाली मैं उहाँ तें आई, बगिया रसीली बीच,
मिल्यो प्रेमपाली मीत दया तें दयाली के।
‘ग्वाल’ कवि पूजा वाली थाली लै ननद आई,
टाली पै गई न, बैठी खेत हरियाली के।
खाली गई खिन की, खुसाली साल साली हाली,
लगि मैं सकी न आली, अंक बनमाली के॥28॥

वियोग शृंगार (दोहा)

प्यारी पिय में वांछित जु, अप्रापति सु-निहार।
हिय सँजोग आसा रहै, सो वियोग सिंगार॥29॥
भेद वियोग सिँगार के, प्रथम प्रवास विखात।
पुनि पूरब अनुराग कहि, मान दैव जोगात॥30॥

प्रवास लक्षण

चल्यो गयो परदेस कों, जा अबला को कंत।
तातें व्याकुल होय जो, बिरह प्रवास कहंत॥31॥

यथा (कवित्त)

मेरे मनभावन न आये सखी सावन में,
तावन लगी है लता, लरजि-लरजि के।
बूँदैं कभूँ रूँदैं, कभूँ धारैं हिय झारैं दैया,
बीजुरी हू बारैं, हारी बरजि-बरजि कै।
‘ग्वाल’ कवि चातकी परम पातकी सों मिलि,
मोरहू करत सोर तरजि-तरजि कै।
गरजि गये जे घन, गरजि गये हैं भला,
फेर ए कसाई आये, गरजि-गरजि कै॥32॥

पूर्वराग लक्षण (दोहा)

सुनि या लखि उपजै जहाँ, प्रेमांकुर नरनारि।
पूरबानुराग जु बरनि, करै जतन मिलि वारि॥33॥
सुनि सनेह उपजै जहाँ, सो श्रुत्या अनुराग।
लखिकै प्रेम जो होय सो, है दृष्टा अनुराग॥34॥

श्रुतानुराग, यथा (कवित्त)

जब तें सुनाई तें कन्हाई की अनूप छबि,
तब तें लगन छाई, भूल्यो खान-पान री।
वाही ऐन मैन मैंन, मोहन बस्यो है नैन,
चैन न परत दिन-रैन बिकलान री।
‘ग्वाल’ कवि कहै आगि दारू में लगाय करि,
अब तू चहत राखी, मेरी कुलकान री।
बरौ यह पतिव्रत, जातें जान जान लागै,
जरौं ऐसा सोनौ, जातें टूटि जाय कान री॥35॥

दृष्टानुराग, यथा

नैनन मिलाय गयसो, सैनन चलाय गयो,
बाँसुरी बजाय गयो, जमुना किनारे पै।
ता दिन तें आली चित, बिबस सरस भयो,
तजि सरबस जाउ, पीत पटवारे पै।
‘ग्वाल’ कवि गोपन में, गोकुल में, ग्वालन में
खोज ही लहूँ मैं ताहि, साँझ या सकारे पै।
डोलत रहौंगी, प्रान प्यारे के गल्यारे माँहि,
द्वारे पै मिलौंगी या मिलौंगी पिछवारे पै॥36॥

(सवैया)

सरक्यो मन मेरो मंजीरन में, मुरवा की जँजीरन में अरक्यो।
तरक्यो फिर ह्वाँ तें सुकिंकिनी में, भुजबंद में फेर फिर्यो फरक्यो।
थरक्यो कवि ‘ग्वाल’ हिरावली में, गुलीबंद में आय भर्यो भरक्यो
हरक्यो पथ में, गथ के सथ में, नथ में, नथ में, नथ में गरक्यो॥37॥
नैन की कोर कटारी लसैं, अनियारी नियारी तियारी करी है।
बेधिकै हीय दुसाल कियो, तऊ बाती की, मो चित चाह भरी है।
त्यों कवि ‘ग्वाल’ छबीली की छाकनि, छाकत हू न छकान ठरी है।
चंदसिरी चलि आई किधौं, कि परी निकरी, कि सुरी उतरी है॥38॥

(कवित्त)

तू न री जो जैहै तो नये हैं वह प्रान प्यारी,
अँखियाँ अन्यारी सों कटारी करै ऊन री।
छू न री हमारो तन-ताप चढ़ि जैहै तोहि,
ऐसी तन-तपन भई है इह जून री।
तू नरी निहारी हितवारी कहै ‘ग्वाल’ कवि,
तो सी गति वारी मतिवारी है कहूँ न री।
ऊनरी घटा में वह चूनरी सुरंग पैंन्हि,
दूनरी चढ़ाय रंग, कर गई खून री॥39॥
कैधों कामदेव खेलिबे की गोरी गिंदुक वे,
कैधों सुभ श्रीफल अमल काम-क्यारी के।
कैधों हेम दुंदुभी उलटि गई सिसुता है,
कैधों सुंदराई के सिधौरे जोर त्यारी के।
‘ग्वाल’ कवि कैधों कंज कली रूप-सर में की,
कैधों मेरु सिखिर सुहाये सोभ न्यारी के।
कैधों चकवा हैं चारु, जुगल उमंग रँगे,
कैधों सजे उरज उतंग वह प्यारी के॥40॥
पेखे न परी के, गंधर्व की लली के कहूँ,
नगी के न, ऐसे हरवैया मन ही के हैं।
मंत्र हैं बसी के, गोल जंत्र सरसी के लिखे,
नर-कर ही के, चहवैया नित ही के हैं।
‘ग्वाल’ कवि जी के, ही के दायक, अनंद ती के,
उपमा सभी के करवैया ये कमी के हैं।
ढाके स्याम कामिनी के, हेरैं-करैं काम नीके,
मिले कामिनी के कुच-कुंभ कामिनी के हैं॥41॥
चतुर चमाके सों झमाकेदार झुकि-झुकि,
चंचल चलाके कोस, कोक की कला के हैं।
रति के न रंभा के, न सोहत तिलोत्तमा के,
मैनका के कहै कोन, ऐसे न गिरा के हैं।
‘ग्वाल’ कवि भरे सुखमा के, पै न उपमा के,
अजब अदा के मनमोहन मजा के हैं।
है न सुरमा के ऐसे, हैं न सु-रमा के सजे,
जैसे सुरमा के नैन बाँके नवला के हैं॥42॥
धीर धरि आयो हौ, करीर कुंज ताँई तो पै,
करि ततवीर पीर हर लाख-लाख पुन।
गैयन की भीर दूजै संग बलवीर मेरे,
देखी तहाँ बीर चीर चंपक के नाखे लुन।
‘ग्वाल’ कवि सोभा तें सरीर में उछीर ही न,
कढ़ी चंद चीर-चीर जाइ नहिँ भाखे गुन।
बीर के न देखे, पंचतीर के न देखे ऐसे,
जैसे तीर कस दृग तीर कस राखे उन॥43॥
खेल की रही न सुधि, बुधि की चलै न कछु,
होंन लगी बढ़वार बिरहा के बेल की।
ठेल की हिये में पीर, धीर जिय कैसे धरैं,
करै को अपीर लाय मलनि ज्यों तेल की।
केलि की कला कांे चित चाह्यो करै ‘ग्वाल’ कवि,
ह्वैहै कब हाय वह घरी रंग-रेल की।
डेल की, गुलेल की, न सेल की कठिन झेल,
जैसी चुभी मेल, वा प्रिया के नैन मेल की॥44॥
कुटिल कमान सी वे भोहैं दृग कान लों हैं,
पान बिन अधर अरुन अति घेर तें।
जाके मुख आगे चंद चाकर सो चाह्यो परै,
आकर मनीन की दबत तन हेर तें।
‘ग्वाल’ कवि चंचला की आवन की दाव है, कि
मोहिनी सिताब रूप धार लियो फेर तें।
रति है, कि रंभा है, कि मेनका, तिलोत्तमा, कि-
आई वह उतरि सची सजी सुमेर तें॥45॥
नूर हू के नूर की न मूदगी न पावै पूर,
जाके नूर आगे कहो नरी कौन समी है।
जाके देखिबे कों परी, परी रहै पाँइन में,
तोली जो तिलोत्तमा तो भई वह कमी है।
‘ग्वाल’ कवि प्यारी चंदमुखी के अधर पर,
ताक्यो तिल एक, तासों मेरी मति रमी है।
अमी कोस जानों जानि फेर हरि होइबे कों,
कोऊक सुजान की जली सुजान जमी है॥46॥
हरिनी के नैनन-सी, बरनी परै न सोभ,
करनी बिनोद मनहरनी अलेख है।
काबुली अनारन तें, अँगूरन तें, ऊखहू तें,
अधिक मिठास बेन सुधा तें असेख है।
‘ग्वाल’ कवि प्यारी सुकुमारी के सु-आनन पै
दुपटा सुरंग सेत, गोटा की सुरेख है।
मानिक की खानि तें कि भान तें कढ्यो है मनो,
चंद परिपूरन पै पर्यो परिवेष तें॥47॥
बाल ताल-तीर में तमाल की तराई तरैं,
तन तनजेब सों दुरावै गुन गाँसे में।
न्हाय कै नवेली कढी, नायकै नुकीले नैन,
चैन की चलन बढ़ी, मैन प्रेम-पाँसे में।
‘ग्वाल’ कवि ऊँचे उरोजन की अगारिन पै,
लिपटी अलक ताके, ताके यों तमासे मैं।
कंचन के कलस सुधा के भरे जानि ससि,
खेंचि रह्यो मानो नील रेसम के फाँसे में॥48॥
कंचन की बेल सी अलेल इक सुंदरी ही,
अंग अलबेल गई, गोकुल की गैलैं हैं।
पातरे बसन वारी, कंचुकी कसन वारी,
मो मन लसन वारी, परी जाकी ऐलैं हैं।
‘ग्वाल’ कवि पीठि पै निहारी सटकारी कारी,
तब तें बिथारी बढ़ी, भूलि गई सैलैं हैं।
अली हम काली कों, उताली नाथ लीयो हुतौ,
वाकी बेनी ब्याली कों, बिलोके विष फैलैं हैं॥49॥
गोकुल की गैल में गजब अलबेली आज,
आई चलि औचकैं अन्हाई सी कपूर में।
ताकत ही तेरी सौंह तन की रही न सुधि,
चंचला सी चमकि चली गई गरूर में।
‘ग्वाल’ कवि सोहनी न जोहती है ऐसी और
ठौर-ठौर जाके भरी मोहनी जहूर में।
नैन में निहारन में, नासिका में, नथूनी में,
नाजुकी में, नीबी में, निलोचन में, नूर में॥50॥

मानविरह लक्षण (दोहा)

मान करै पै करहि जहँ, देर मनावन हार।
तहँ बिरहागि न उपजई, मान बिरह सु उचार॥51॥

यथा (कवित्त)

पाती नरनारि की परखि पिय पाग माँहि,
लाग जाग उठी अति, रिस भर गई हैं।
रुसिकै समीप तें जु सरकी सदन सूने,
दूने से मलोला मारि मौन करि गई है।
‘ग्वाल’ कवि जौं लों पी मनाइबे को आवै-आवै,
तौं लों तरुनी के बिरहागि बरि गई है।
जरि गई रोम-रोम, परि गई पलिका पै,
नज़र गई सी वह, पीरी परि गई है॥52॥

दैवयोगात विरह लक्षण (दोहा)

दैवजोग तें होय जो, अनायास सु वियोग।
ताके बहुत प्रकार हैं, करियत नाम प्रयोग॥52॥
श्राप मेह पावक पवन, उपबंधन गद जोग।
सिंहादिक भयदा सबद, पिया विरक्त प्रयोग॥64॥
उत्सव भय दुहुँ भीर तें, इत्यादिक बहु होत।
लखियो द्वै इक लक्ष तें, सबके लक्ष उदोत॥55॥

शाप, यथा (सवैया)

पीतम लै जलकेलि करै हुती, नारद ने लियो आइकै दायो।
अंग खुले लखि कोप भयो, पति कों ब्रज को तरु भाखि बनायो।
यों कवि ‘ग्वाल’ बरी बिरहागनि, आकसमात को खेद मैं पायो।
नाथ बियोग कराय अली कहैं, वो मुनि के कहा हाथ में आयो॥56॥

मेहावरोध, यथा (कवित्त)

प्रीत सों परोसिन बुलाइ कही चलि संग,
मीत सों मिलौगी मग, तो सौं मन लागि है।
ऐसै बतराय चली आयो घन घुमड़ात,
बोली बरसैगो तो न मोपै जायो भागि है।
‘ग्वाल’ कवि तौं लों परी धारें, भयो जल थल,
ह्वै करि बिकल मुरी बरी बिरहागि है।
पानी में लगी री आग, अदभुत बात अली,
जानी मैं जु वाके तन, बैठी बडवागि है॥57॥

अन्यावरोध, यथा

बंसी में बुलाई बाल, बंसीबट बंसीधर,
करिकै सिँगार धाई चमकत चौगुनी।
छाई चैत चाँदनी, बिछाई मनौ चाँदी भूमि,
तामें दुति वाकी री, दिखाई परी नौ गुनी।
‘ग्वाल’ कवि आय वह, पहुँची न प्यारे पास,
काहे तें कि गई काहू सायत जु औगुनी।
मन में दवागि लागी, तन बिरहागि लागी,
मन दुहरागि लागी, लाल लागी सौ गुनी॥58॥

दशदशा वर्णन (दोहा)

दसा जु दस बरनन करत, सुकवि बियोग मँझार।
अभिलाषा चिंता सुमृति, पुनि गुनकथन उचार॥59॥
कहि उदवेग प्रलाप पुनि, है उन्माद जु ब्याधि।
जड़ता मरन बखानहीं, जिनकी बुद्धि अगाधि॥60॥

अभिलाषा लक्षण

आकांक्षा प्रिय मिलन की, सरसी रहै हमेस।
सो अभिलाष दसा करत, ग्रंथन माँहि बुधेस॥61॥

यथा (कवित्त)

गुरु निज काज कों, पठायो ब्रजराज कों ह्वाँ,
करौं का इलाज कों बिरह तन तावई।
ज्यों-ज्यों औधि नियराई, त्यों-त्यों ही रह्यो न जाइ,
चित लाल चाइ, ललचाई, बिलखावई।
‘ग्वाल’ कवि उठायो बिचार चारु नयो एक,
करौं का उचार बिधि जो पर बनावई।
इत होंय मेरैं या पिया कें उत होंय पंख,
या मैं उड़ि जाऊँ, या पियारो उड़ि आवई॥62॥

चिंता लक्षण (दोहा)

करै चिंतवन बिरह में, प्रियविषयक व्यवहार।
चिंता दसा जु भाखहीं, जिनकी बुद्धि अपार॥63॥

यथा (कवित्त)

पगी रहौं मौन में बियोगी भई जा दिन तें,
औधि ही की गिनती की राखत जगीर है।
खगी रहै तऊ सोच-सागर उजागर में,
नागर के नेह की नदी-सी उमगी रहै।
सगी रहै काहू की न, पूछै हाल ‘ग्वाल’ कवि,
सुख के समाजन कों, करत तगी रहै।
दगी रहै दिन-दिन, जगी रहै निस दिन,
ठगी रहै अजब विचार में लगी रहै॥64॥

स्मृति लक्षण (दोहा)

काहू तें कछू श्रवन करि, या कछु वस्तु निहारि।
सुधि सरसै पिय रूप की, सुमृति सु दसा उचारि॥65॥

यथा (कवित्त)

पचि तो रही ही पीर पीतम के जाइबे की,
पीउ-पीउ पपिहा पुकारि न पचन देत।
चलि तो रही ही री अधीरता अवधि आस,
ए पै लता लौनी लहराय न लचन देत।
अचि तो रही ही ध्यान रूप रस ‘ग्वाल’ कवि,
गरज निगोड़ी हाय, नैकों न अचन देत।
बचि तो रही ही मैं मसूकैं घनस्याम बिन,
ए पै घनस्याम आय क्योंहू न बचन देत॥66॥
ऐसी तो न गरमी गलीचन में, फरसों में,
है न बेस कीमती बनात के दुसाला में।
मेवन की लौज में न, हौज में हिमामहू के,
मृगमद मौज में, न जाफरान जाला में।
‘ग्वाल’ कवि अंबर-अतर में, अगर में न,
उमदा सबूरे हू में, है न दीपमाला में।
द्वै द्वै हू दुसाला में न, अमलों के प्याला में न,
जैसी पाला-हरन सकति प्यारी बाला में॥67॥

गुणकथन लक्षण (दोहा)

गनना पिय के गुनन की, करै जु बिरह मँझार।
सो गुनकथन दसास कहैं, जे हैं बिदुष उदार॥68॥

यथा (कवित्त)

नरी कों न, परी कमों न, सुरी कों निहार कहूँ,
हारै जानि-जानि सार-पाँसे जे पसंद के।
प्यारी-प्यारी प्यार सों पुकारै प्रान वारै सदा,
कौतुक हजारै करै, मदन नरिंद के।
‘ग्वाल’ कवि मथुरा कों जाती बेर कीनी चितै,
दिनै गिन रहौं आऊँ फूलै अरविंद के।
कहाँ लौं बताऊ, न अघाऊँ, औ’ न पाऊँ अंत,
कौन-कौन गाँऊ गुन गौरी मैं गुविंद के॥69॥

उद्वेग लक्षण (दोहा)

पीय बियोगहिँ पाइकैं, लगै सुखद दुखदान।
सो उदवेग दसा कहैं, साहितसास्त्र सुजान॥70॥

यथा (कवित्त)

आवेंगे बिदेस तें जबै ही ब्रजचंद इहाँ,
तेरे छलछंद कहौं रखिहौं न दाब के।
चाँदी के कटोरन में, चंदन बतावै मोहि,
लावत बराय तू समूह महताब के।
‘ग्वाल’ कवि सौ बिसे तो स्वाहा को सरीर तेरो,
साँच दै बताय बोलि बचन सिताब के।
गूँधत में कर तेरे जर क्यों न गये गोरी,
बर रहे झरसे ये गजरे गुलाब के॥71॥

प्रलाप लक्षण (दोहा)

बिरह बिकलता के विषै, बोलै बचन जु ब्यर्थ।
कहत प्रलाप दसा तिहीं, जिनकी बुद्धि समर्थ॥72॥

यथा (कवित्त)

बालम बिलासी बाको, बिरम्यो बिदेस बीच,
वाही में बँधी है री बिरति वाके प्रान की।
बीते बहु बासर बरत बिरहानल में,
बिकल बिलोकन बिलोकत बिथान की।
‘ग्वाल’ कवि बोलन तें, बासन तें, बासन तें,
बेसर तें, बीरी तें, बदत बे-प्रमान की।
बिना बात, बात हूँ तें बात करि उठै बीर,
बायरी सी बक्यो करै बेटी वृषभान की॥73॥

उन्माद लक्षण (दोहा)

अविचारित जु करै क्रिया, बिरहाकुल अति होइ।
सो उन्माद दसा लिखत, ग्रंथन में सब कोइ॥74॥

यथा (कवित्त)

प्यारी के पियारो परदेस गयो जा दिन तें,
ता दिन तें ताको कहूँ कल न परत है।
ए री बीर अदभुत बिरह बिलोकियत,
लिपटै तमालन तें, धीर न धरत है।
‘ग्वाल’ कवि उनये निरखि घनस्याम स्याम,
धाम चढ़ि काम नयो ऐसो उभरत है।
दचकि-दचकि भूमि, लचकि-लचकि लौनी,
उचकि-उचकि बात ऊँच कों करत है॥75॥

व्याधि लक्षण (दोहा)

होय ज्वरादिक रोग जहँ, बिरह बेदना पाइ।
ब्याधि दसा ताकों कहत, कबिजन के समुदाइ॥76॥

यथा (कवित्त)

आई मैं सदन तें बिहारी सुनौ बाल बिथा,
द्रोपदी के चीर ज्यो बिरह बिसतार है।
तपि उठ्यो तन ताको, तकि-तकि त्रास खाइ,
चंदन कपूर लायो, होय गयो छार है।
‘ग्वाल’ कवि तापै अब पास हू न जायो जाय,
दूर ही ते जारै नहिँ चलै उपचार है।
ताप है, कि श्राप है, कि सेष की फुँकार है, कि-
बीजुरी हजार है, कि बाड़वा की झार है॥77॥

जड़ता लक्षण (दोहा)

बूझिनि सक्ति रहै न जहँ, मति जड़-सी ह्वै जाय।
जड़ता दसा सु जानिये, ग्रंथन में बरनाय॥78॥

यथा (कवित्त)

अंगना अनेकन के पति परदेस जात,
काहू के उठे तें उर आइ धकधकी सी।
केतिक के गात दुबरात जात पियरात,
कछु न सुहात सरसात सकसकी सी।
‘ग्वाल’ कवि अजब अनोखो है बिरह याको,
येक संग मति को चढ़ी है थकथकी सी।
बात-बात में तें बात काढ़त ही भाँति-भाँति,
सो न बूझै बात रहि जात अकबकी सी॥79॥

मरण लक्षण (दोहा)

बिरह बिथा अति प्राप्त तें, चहै जु तजन सरीर।
मरन दसा यों भाखिनी, लिखहैं बुद्धि गँभीर॥80॥

यथा (कवित्त)

बिसरी बिहारी कों बिदेस जाय सुधि मेरी,
हेरी बहु बासर अवधि दुख जाल तें।
सोऊ गई बीत, बिरहानल बराये डारै,
बिकल भई ही रहौं बिकसे रसाल तें।
‘ग्वाल’ कवि हारी हौं लचारी जानि भारी बिथा,
अब न सहारी जाय मैन सर साल तें।
जौं लों रहै जान तौं लों मरी मोहि जान-जान,
जान चली जाय तो जियों मैं या जँजाल तें॥81॥

॥इति श्री रसरंगे ग्वालकवि विरचिते संयोगवियोगशृंगारहावदशावर्णनं नाम षष्ठो उमंगः॥