संकल्प-विकल्प / महेन्द्र भटनागर
आज यह कैसी थकावट ?
कर रही प्रति अंग रग-रग को शिथिल !
मन अचेतन भाव-जड़ता पर गया रुक,
ये उनींदे शांत बोझिल नैन भी थक-से गये !
क्यों आज मेरे प्राण का
उच्छ्वास हलका हो रहा है,
गूँजते हैं क्यों नहीं स्वर व्योम में ?
पिघलता जा रहा विश्वास मन का
मोम-सा बन,
और भावी आश भी क्यों दूर तारा-सी
दृष्टि-पथ से हो रही ओझल ?
व जीवन का धरातल
धूल में कंटक छिपाये
राह मेरी कर रहा दुर्गम !
गगन की इन घहरती आँधियों से
आज क्यों यह दीप प्राणों का
उठा रह-रह सहम ?
रे सत्य है,
इतना न हो सकता कभी भ्रम !
भूल जाऊँ ?
या थकावट से शिथिल होकर
नींद की निस्पंद श्वासों की
अनेकों झाड़ियों में
स्वप्न की डोरी बनाकर
- झूल लूँ ?
इस सत्य के सम्मुख
झुकाकर शीश अपना
आत्म-गति को
(रुक रही जो)
- रोक लूँ ?
या
सत्य की हर चाल से
संघर्ष कर लूँ आत्मबल से आज ?